1
एक हम मिले
दूसरे दिन करीब आ गए
तीसरे दिन और और
और आ गए करीब
चौथे दिन समां गए एक दूसरे में
और फिर आज ....
कहाँ हो तुम
कहाँ हूँ मैं
दोनों को ख़बर नही
२
रिश्तों की भीड़ में
अकेला खड़ा में
ढूंढ़ रहा उसे
जो सच में
रिश्ता हो
३
रिश्तों की दुनिया से
चुराया मैंने
एक प्यारा सा रिश्ता
फूलने - फलने लगा यह
मेरे भीतर और
साथ - साथ
फुला -फला मैं भी
चढ़ता गया
उत्कर्ष की सीढियां
पर , जब ऊपर पहुँचा
जाने कब से
मेरे रिश्ते की बेल
सूखी मुरझाई
पैरों तले कुचली थी
6 टिप्पणियां:
रिश्ते रूपी बेल को, डोर प्रेम-विश्वास ।
स्वाभाविक अंदाज में, ले चलती आकाश ।
ले चलती आकाश, ख़ुशी के शबनम झिलमिल ।
मिलते नमी प्रकाश, सामने दिखती मंजिल ।
पर रविकर कुछ दुष्ट, तापते आग जलाकर ।
पाता है आनंद, बेल को जला तपा कर ।।
रिश्तों की परणिति शायद यही है ..
सुन्दर
ravi ji aapne badi shandar line likhi rishton ke upar- bdhiyan
Rishton ka silsila yun hi chalti rahe ... Khabar Bhi n ho ...Larkin toote nahi ... Teenon lajawab lamhe hain ....
शुक्रवारीय चर्चा-मंच पर
आप की उत्कृष्ट प्रस्तुति ।
charchamanch.blogspot.com
shelly !beinng journalist ur sentimental disposition is not up to u but deem it ur real asset! now a days sensivity toward humanity is dying rapidly in us. we are particular toward our materialistic being .
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