बुधवार, 18 अप्रैल 2012

रिश्ते

1
एक हम मिले
दूसरे दिन करीब आ गए
तीसरे दिन और और
और आ गए करीब
चौथे दिन समां गए एक दूसरे में
और फिर आज ....
कहाँ हो तुम
कहाँ हूँ मैं
दोनों को ख़बर नही

रिश्तों की भीड़ में
अकेला खड़ा में
ढूंढ़ रहा उसे
जो सच में
रिश्ता हो


रिश्तों की दुनिया से
चुराया मैंने
एक प्यारा सा रिश्ता
फूलने - फलने लगा यह
मेरे भीतर और
साथ - साथ
फुला -फला मैं भी
चढ़ता गया
उत्कर्ष की सीढियां
पर , जब ऊपर पहुँचा
जाने कब से
मेरे रिश्ते की बेल
सूखी मुरझाई
पैरों तले कुचली थी

6 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

रिश्ते रूपी बेल को, डोर प्रेम-विश्वास ।

स्वाभाविक अंदाज में, ले चलती आकाश ।

ले चलती आकाश, ख़ुशी के शबनम झिलमिल ।

मिलते नमी प्रकाश, सामने दिखती मंजिल ।

पर रविकर कुछ दुष्ट, तापते आग जलाकर ।

पाता है आनंद, बेल को जला तपा कर ।।

M VERMA ने कहा…

रिश्तों की परणिति शायद यही है ..
सुन्दर

shelley ने कहा…

ravi ji aapne badi shandar line likhi rishton ke upar- bdhiyan

दिगम्बर नासवा ने कहा…

Rishton ka silsila yun hi chalti rahe ... Khabar Bhi n ho ...Larkin toote nahi ... Teenon lajawab lamhe hain ....

रविकर ने कहा…

शुक्रवारीय चर्चा-मंच पर

आप की उत्कृष्ट प्रस्तुति ।

charchamanch.blogspot.com

chunaram vishnoi ने कहा…

shelly !beinng journalist ur sentimental disposition is not up to u but deem it ur real asset! now a days sensivity toward humanity is dying rapidly in us. we are particular toward our materialistic being .