शनिवार, 28 अप्रैल 2012
इज्ज्त किसकी जाती है?
बुधवार, 18 अप्रैल 2012
रिश्ते
1
एक हम मिले
दूसरे दिन करीब आ गए
तीसरे दिन और और
और आ गए करीब
चौथे दिन समां गए एक दूसरे में
और फिर आज ....
कहाँ हो तुम
कहाँ हूँ मैं
दोनों को ख़बर नही
२
रिश्तों की भीड़ में
अकेला खड़ा में
ढूंढ़ रहा उसे
जो सच में
रिश्ता हो
३
रिश्तों की दुनिया से
चुराया मैंने
एक प्यारा सा रिश्ता
फूलने - फलने लगा यह
मेरे भीतर और
साथ - साथ
फुला -फला मैं भी
चढ़ता गया
उत्कर्ष की सीढियां
पर , जब ऊपर पहुँचा
जाने कब से
मेरे रिश्ते की बेल
सूखी मुरझाई
पैरों तले कुचली थी
एक हम मिले
दूसरे दिन करीब आ गए
तीसरे दिन और और
और आ गए करीब
चौथे दिन समां गए एक दूसरे में
और फिर आज ....
कहाँ हो तुम
कहाँ हूँ मैं
दोनों को ख़बर नही
२
रिश्तों की भीड़ में
अकेला खड़ा में
ढूंढ़ रहा उसे
जो सच में
रिश्ता हो
३
रिश्तों की दुनिया से
चुराया मैंने
एक प्यारा सा रिश्ता
फूलने - फलने लगा यह
मेरे भीतर और
साथ - साथ
फुला -फला मैं भी
चढ़ता गया
उत्कर्ष की सीढियां
पर , जब ऊपर पहुँचा
जाने कब से
मेरे रिश्ते की बेल
सूखी मुरझाई
पैरों तले कुचली थी
सोमवार, 16 अप्रैल 2012
आज का मानव
शब्दहीन , संज्ञाहीन
और
संवेदनहीन
किसी को मरते देख
अपरिवर्तित रहती भावनाएं
किसी को दुखी देख
उर से खुशियाँ बरसती हैं
कोई रोये तो
अधरों पर मुस्कान तैरती हैं
कोई मदद को पुकारे
तो कान दे नही पाते
कहीं थोडी प्रशंसा मिली
तो पाँव ज़मीन छोड़ देते हैं
कोई चार पैसे दे दे
बस उसके तलुए सहलाते हैं
कभी कर्तव्य की बात हो
उन्हें तारे दिख जाते हैं
रिश्ते नाते के मामले में
बस रुपयों से मेल बढाते हैं
भगनी -दुहिता माता
सारे सम्बन्ध एक धागे में
पिरो दिए जाते हैं
नारी को बस नारी बनाते हैं
इस मानव का कभी
पुराने मानव से
मेल कराते हैं
तो छत्तीस का आकडा पातें हैं
शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012
चिड़िया
इन दिनों पहले वाली बात नहीं रही. कुछ साल पहले तक गर्मियों की सुबह छत चिड़ियों की चहचआहट से गुलजार रहती थी . अब कितनी भी सुबह उठ जाओ चिड़ियाँ दिखती नहीं. सभी लोगों का तो मालूम नहीं पर मेरे जैसे उनकी आवाज के आदि लोगों के लिए यह एक दुखद घटना है, घर जाने पर मेरी सुबह उनकी आवाज से ही हुआ करती थी . चिड़ियाँ जाने कहाँ गम हुई की अब घर जाकर भी निराशा हाथ आती है.
पिछले दिनों चिड़ियाँ की याद में कविता लिखी थी
चिड़िया
उस दिन दिखी थी चिड़िया
थकी- हारी
बेबस क्लांत सी
मुड़- मुड़ कर
जाने किसे देख रही थी
या फिर, नजरें दौड़ा- दौड़ाकर
कुछ खोज रही थी
मैंने सोचा,
ये तो वही चिड़िया है
जो बैठती है मुंडेर पर
चुगती है आंगन में
खेलती है छत पर
और मैं
घर में, बाहर
मुडेर पर, छत पर
जा - जाकर देख आई
दिखी कहीं भी नहीं वह
तब याद आया
वो तो दाना चुगती है
मुठ्ठी में लेकर दाने बिखेरे
आंगन से लेकर छत तक
पर आज तक बिखरे हैं दानें
चिड़िया का नामोनिशां नहीं
‘शायद अब दिखती नहीं चिड़िया
आंगन में, छत पर
या मुड़ेर पर
चिड़िया हो गई हैं किताबों
और तस्वीरों में कैद
पर मैं भी हूं जिद पर
रोज बिखेरती हूं दाना
रोज करती हूं इंतजार
आएगी, मेरी चिडिया रानी
कभी तो आएगी
स्नेह सिंचित दाने
आकर खायेगी।
रविवार, 22 जनवरी 2012
जंगल के जानवर
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