बुधवार, 17 मार्च 2010

एक मुलाकात वीरेन डंगवाल से


जब उनकी कलम चलती है सब चमत्कृत रह जाते हैं। कविता, प्राध्यापन, पत्रकारिता हर क्षेत्र में उनकी कोई सानी नहीं है। पत्रकारिता में सनसनी और सांप्रदायिकता के घोर विरोधी होने के साथ ही वे अपनी बेबाक कथन के लिए जाने जाते हैं। हमबात कर रहे हैं प्रसिद्ध कवि / पत्रकार वीरेन डंगवाल की। वीरेन साहित्य अकादमी पुरस्कार समेत कई सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। दो दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रम में संस्कारधानी आए वीरेन से छोटी सी मुलाकात-
कविताओं के बारे में यह कहा जाता है कि आज के युवा उनसे दूर भागते हैं आपकी कविताओं के साथ स्थिति ठीक उल्टी कैसे है?
-कविता लिखते समय यह ख्याल रखता हूं कि वो दूसरों तक पहुंचे।हर रचना को कहीं न कहीं जाना ही होता है तो क्यों न वो पाठकों तक पहुंचे। दूसरी बात है कि हर कवि का अपना स्वभाव होता है। अगर जितने जटिल समय में कविता लिखी जा रही हो, उतनी ही जटिलता उसमें ला दी जाये तो कविता का हाल बुरा हो जाता है।
-लघु पत्रिकाओं का हिन्दी साहित्य में बड़ा योगदान है पर शुरू से आज तक वो बीच में ही दम तोड़ती रही हैं। इसके लिए क्या समाधान होना चाहिए?
-लघु पत्रिकाओं की बुनियाद में ही टूटना है। यही उनकी सीमा है और ताकत भी। लघु पत्रिकाओं का आना- जाना साहित्य के लिए शुभ ही हैं। क्योंकि यदि वे प्रतिष्ठान बन जायेंगी तो उनका व्यक्तित्व विखर जायेगा और वे साहित्य का पोषण कहां कर सकेंगी।
-हिन्दी में ब्लॉग बड़ी तेजी से उभर रहे हैं, इसका साहित्य पर क्या प्रभ्ााव होगा
- ब्लॉग में अराजकता और निरंकुशता तो है। क्योंकि वहां आदमी स्वयं मूल्यांकन करता है। अभ्ाी इसकी शुरूआत ही है इसलिए ठीक है। आगे इसकी दिशा बदलेगी।
-पत्रकारिता विभिन्न बदलावों से गुजर रही है, इसे किन रूपों में देखते हैं?
- अखबारों का सकुoलेशन और आजार बढ़ रहा है। पर उनके कंटेट और कन्सर्न कम हुए हैं। बदलाव तो आने ही चाहिए पर इसका डेमोक्रेटिक चरित्र जरूर सुरक्षित रहना चाहिए। सबसे बुरी दशा भाषा की है।
सम्भवत: नये परिपेक्ष्य में भाषा का बदलना आज की जरूरत है।?
-नहीं । अब घटिया भाषा परोसी जाती है और मान लिया जाता है कि पाठक यही चाहता है। अपर मीडिल क्लास की भाषा को मान्य भाषा के तौर पर महत्व दिया जा रहा है। अखबार शायद यह भूल रहे हैं कि वे भ्ााषा और विवेक का संस्कार सीखाने का काम करते हैं। कुछ अखबारों ने इसे बचाकर रखा है। नई दुनिया पुराने समय से ही पत्रकारिता की ही ट्रेनिंग सेंटर रहा है। इसी से इसका भारतीय पत्रकारिता में स्थान है।
आपने अनुवाद पर काफी बढ़िया काम किया है। पर इस क्षेत्र में अन्य लोग कम क्यों हैं?
अब तो स्थिति काफी बदली है अनुवाद के क्षेत्र में बहुत सारे लोग आगे आ रहे हैं।
कुछ नया कर रहे हैं?
नया करने की प्लानिंग तो है। कुछ कविताओं पर काम कर रहा हूं। शमशेर और मुक्तिबोध पर काम करने की इच्छा है। इसके अलावा भी कुछ है पर वो पूरा होने के बाद ही सामने आयेग।

वीरेन डंगवाल की एक कविता
दुष्चक्र में सृष्टा

कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,
क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!

छिपकली को ही ले लो,
कैसे पुरखों
की बेटी छत पर उल्टा
सरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को।
फिर वे पहाड़!
क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें?
और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो
नदियाँ, वो?
सूंड हाथी को भी दी और चींटी
को भी एक ही सी कारआमद अपनी-अपनी जगह
हाँ, हाथी की सूंड में दो छेद भी हैं
अलग से शायद शोभा के वास्ते
वर्ना सांस तो कहीं से भी ली जा सकती थी
जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से।

अरे, कुत्ते की उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
कैसी रसीली और चिकनी टपकदार, सृष्टि के हर
स्वाद की मर्मज्ञ और दुम की तो बात ही अलग
गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ
तुम्हारे ही मुखड़े पर झलती हुई।

आदमी बनाया, बनाया अंतड़ियों और रसायनों का क्या ही तंत्रजाल
और उसे दे दिया कैसा अलग सा दिमाग
ऊपर बताई हर चीज़ को आत्मसात करने वाला
पल-भर में ब्रह्माण्ड के आर-पार
और सोया तो बस सोया
सर्दी भर कीचड़ में मेढक सा

हाँ एक अंतहीन सूची है
भगवान तुम्हारे कारनामों की, जो बखानी न जाए
जैसा कि कहा ही जाता है।

यह ज़रूर समझ में नहीं
आता कि फिर क्यों बंद कर दिया
अपना इतना कामयाब
कारखाना? नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पांच सौ सालों से
जहाँ तक मैं जानता हूँ
न बना कोई पहाड़ या समुद्र
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार।
बाढ़ेँ तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप,
तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब
खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गई सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी
वर्दियां जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार!
प्रार्थनाग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?

अपना कारखाना बंद कर के
किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन - सा है वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!!