मंगलवार, 30 जून 2009

आया मानसून












आख़िर इंतजार के बाद आ ही गया मानसून। जबलपुर में भी झमाझम बरसे बादल ।



शनिवार, 27 जून 2009

मिलिए मैसी साहब से







जबलपुर की धरती ने अपने अंक में अनेक प्रतिभाएं समेटी हैं। जबलपुर के ही एक बेटे ने मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में अपना एक मुकाम बनाया और चरित्र अभिनेता के रूप में उसकी पहचान है। मैं बात कर रही हूं मैसी साहब , मुंगेरीलाल यानी रघुवीर यादव की जो अपनी पत्नी रोशनी और बेटे अवीर के साथ दो दिन के लिए जबलपुर आये थे तब मेरी उनसे बातचीत हुई थी। सोचा ब्लागर साथ्ाी क्यों वंचित रहे -
- इतने दिनों के बाद जबलपुर आकर कैसा लगा?
-अपने घर आने पर तो हर किसी को खुशी मिलती है। अपनी जन्मभूमि का प्यार हर किसी को ख्ांीचता है। मैं पहले हमेंशा यहां आया करता था,फिर व्यस्तताओं के कारण गैप होने लगा। अब दो साल से हर बार आ रहा हॅूं। बहुत सुकून मिलता है यहां।
अपने अब तक के सफर के बारे में कुछ बताएं?
मैंने हायर सेकेंड्री तक की प़ढ़ाई जबलपुर से की। मैं अभिनेता बनना चाहता था। मैंने अपनी क्षमताओं को पहचाना। घर से बाहर निकलने में घर और परिवार की ममता आ़ड़े आती है। परिजन अपनी आंखों के सामने ही देखना चाहते हैं। पर मैंने इस प्यार को बेि़ड़यां नहीं बनने दीं। मैं आज भी परिवार से जु़ड़ाव रखता हॅूंं ।बस आगे ब़ढ़ने के लिए घर से दूर गया। मैंने केके नायकर, चंद्रपाल आदि के साथ शुरुआत की। मैंने एनएसडी ज्वाइन किया। इसके बाद भोपाल, दिल्ल्ी और मुंबई मेंतीस साल तक लगातार थियेटर किया।
-किसी को जबलपुर से मुंबई तक का सफर तय करना हो तो रास्ते में क्या दिक्कतें आयेंगी?
मुंबई तक का सफर मुश्किल नहीं है, पर इस सफर को तय करने के लिए अपनी काबलियत की जरूरत होगी। शुरू से ही अपने अंदर एक जुनुन रखना होगा और बिना थके अपने रास्ते पर ब़ढ़ना होगा, तब सफलता भी दूर नहीं रहेगी। इस क्षेत्र में जाने वालों को प़ढ़ाई के साथ साथ एनएसडी या एफडीआई आदि करना चाहिए। थियेटर भी करना चाहिए पर ऐसा नहीं कि एक दो प्ले किया और समझने लगे कि मैंने महारथ हासिल कर ली।
- जबलपुर प्राकृतिक सौन्दर्य से आप्लावित है फिर भी यहां फिल्मों की शूटिंग क्यों नहीं होती?
-यह बात तो सही है कि यहां प्रकृति ने अपना प्यार जी भरकर लुटाया है। राजकपूर ने अपनी एक फिल्म की शूटिंंग यहां की थी। कुछ समय पहले शाहरूख ने भी यहां शूटिंग की है, लेकिन मूल दिक्कत शहर के पिछ़ड़ेपन को लेकर आती है। एक तो यह मुंबई से दूर है, दूसरी फिल्म यूनिट के रुकने के लिए सुविध्ााएं भी नहीं हैं। एक कारण यह भी है कि निर्माताओं को विदेश में शूटिंग करने की आदत लग गई है।
जबलपुर के विकास से कितने संतुष्ट हैं आप?
विकास की तो आप बात मत कीजिए। मैंने इतना `स्लो" कोई शहर नहीं देखा है। जब दूसरे शहरों को विकसित होते देखता हंूॅ तो मुझे लगता है मेरा शहर कब ऐसा होगा? कुर्सी पर बैठे लोग कर क्या रहे हैं इसे आगे क्यों नहीं ब़ढ़ने दे रहे हैं, यह समझ से परे है। मुझे इस मिट्टी से प्यार है, मैं इसी मिट्टी में मरना चाहता हॅूं।
अभिनय में संतुष्टि कहां है?
-चरित्र रोल करने से एक प्रकार की संतुष्टि मिलती है। मैंने `मुंगेरीलाल के हसीन सपने' के पहले भी काफी कुछ किया पर मुंगेरीलाल लोगों को याद रह गया। किसी को हॅंसाना वो भी सभ्य तरीके से थो़ड़ा मुश्किल तो है।
- आजकल की फिल्मों में `एक्सपोजर' रहा है, आप क्या कहेंगे?
फिल्म हमेशा वे ही चलती हैं जो अच्छी हों। एक्सपोज कराने और अधिक पैसा लगा देने से कोई भी िफल्म चलती नहीं। एक्सपोज के लिए जनता फिल्म नहीं देखती। जब तक फिल्म अच्छी नहीं होती है हिट नहीं होती। फिल्म बनाने वाले खुद ही एक्सपोज करना चाहते हैं और दोष्ा ऑडिएंस को देते हैं।
- आजकल क्या कर रहे हैं?
-कुछ दिन पहले आजा नाच ले" फ़िल्म की है। अब एक और फिल्म `आसमां कर रहा हूँ इस फिल्म में मेरा रोल एक राइटर का है जो मुफलिस टाइप का है। वक्त के मार से घायल है वह पर अंत में उसकी पहचान बनती है।
- अगर एक्टर नहीं होते तो क्या होते?
तब तो मैं सिर्फ रघुवीर होता। मेरी कोई पहचान नहीं होती और मैं यहीं कहीं फैक्ट्री में काम कर रहा होता।
शहरवासियों के लिए कोई संदेश?
- लोगों को मेहनत से आगे ब़ढ़ना चाहिए। कुछ नहीं करने से अच्छा है कुछ करें और `रिस्क' लेने में पीछे नहीं रहना चाहिए। यहां की मिट्टी में ब़ड़ी ताकत है। लोग हमेशा मंजिल बनाते हैं लेकिन यह ठीक नहीं। लोगों को हमेशा रास्ते बनाना चाहिए ताकि उस पर दूसरे लोग भी चल सकें। याद रखना चाहिए कि जीवन की सार्थकता कुछ अलग करने म ें है। एक खास बात यह भी कि ईश्वर देता सब कुछ है बस `पिक' करना आना चाहिए।

बुधवार, 24 जून 2009

सुनील सिंह और सुशील बैठियाला बातचीत

जबलपुर में अभिनय का प्रशिक्षण देने आये कलाकार सुनील सिंह और सुशील बैठियाल से मुलाकात। माचिस फेम सुनील सिंह को तो सब जानतें है। सुशील बैथियाला रंगमंच के कलाकार हैं। वालिवुड के भी पहचाने नाम हैं .

आमजन को थियेटर की जरूरत -सुनील सिंह

जबलपुर के छात्रों के साथ कैसा लगा

बहुत अच्छा , मैं भी इनके साथ सीखूंगा।

पिछले वर्ष और इस वर्ष की कार्यशाला में कोई अंतर?

नहीं अंतर तो नहीं है। बस चेहरे बदल गए हैं।

कौन सी बात आपको जबलपुर खींच लाती है

लोगों का प्यार मुझे खींच लाता है। पहले मैंने विवेचना की तरफ से शो किए हैं। इसलिए जब भी बुलाते हैं मैं चला आता हूं।

पहले दिन के क्लास से इन छात्रों को लेकर क्या उम्म्ाीद जगी

है ये मैं नहीं बता सकता। एक दिन में कुछ कहा नहीं जा सकता और दूसरी बात यह है कि कौन , कैसा गेन करता है।

जबलपुर जैसे छोटे शहर में रहकर रंगमंच के लिए काम करने वाले छात्रो का भविष्य कैसा है

यह भी सही तरीके से नहीं बताया जा क्योंकि यह डिपेंड करता है किसे कैसा चांस मिला।

आम जन थियेटर से दूर होते जा रहे हैं , इस विषय में क्या कहना चाहेंगे?

इसके लिए थियेटर को नहीं आम जन को सोचने की जरूरत है क्योंकि थियेटर को लोगों की नहीं बल्कि लोगाें को थियेटर की जरूरत रहती है। आज लोगों के पास वक्त की कमी है।

जबलपुर आने से पहले आप क्या विशेष कर रहे

- अभी तीन फिल्में की है- आमरस, रेड अल्र्ट और तीसरी टिप्स की फिल्म है पर अभी नाम डिसाइड नहीं है। इसके अलावा मैंने एक प्ले भी लिखा है- एक तु और एक मैं।

अभिनय के छात्रों के लिए कुछ विशेष-

सोचना शुरू करें। अभियनय के लिए इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। मैं यहां छात्रों को रोज प्रश्न दूंगा वे इससे जूझेंगे, सोचेंगे फिर हल निकालेंगे।
जीवन के बहुत करीब है थियेटर -सुशील बोठियाल
आप पहले भी जबलपुर आये हैं , यहां के छात्रों के साथ्ा कैसा

लगा काफी अच्छा लगा मुझे। मैं लगातार तीन वर्ष से यहां राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव में आ रहा हूंॅ। लोग भी मेरे जाने पहचाने हैं।

आप छात्रों के उच्चारण पर काम करने वाले है, क्या इसकी बहुत जरूरत है

हांॅ, अभिनय में उच्चारण की आवश्यकता है। इसका ब़ड़ा प्रभाव होता है। इसके अलावा मैं कॉप्सट्रेशन पर भी काम करूंगा।

इस एक महीने की कार्यशाला में छात्र कितना सीख सकेंगे

थियेटर की प्रक्रिया बाकी शिक्षा से भिन्न्ा है। इसमें अपने जीवन के प्रति जागरूक करते हैं। जो जितना अधिक जागरूक होगा वह उतना ही अच्छा अभिनेता भी।

जबलपुर में थियेटर के साथ बहुत सारी समस्याएं हैं। उनके हल के लिए क्या करने की जरूरत है

एक खास बात यह है कि थियेटर की यह समस्या आजादी के समय से ही है और आगे भी रहेगी। इसका कोई हल नहीं निकल सकता। पूरे देश की अव्यसायिक थियेटरों का यही हाल है। थियेटर जिंदगी के करीब होता है। जिस प्रकार जिंदगी का हल कोई भी विचारक नहीं निकाल सके उसी प्रकार थियेटर का भ्ाी संभव नहंी है।



तो फिर थियेटर जिंदा कैसे है?

जितने अव्यसायिक रंगमंच हैं उसने ही थियेटर को जिंदा रखा है। एनएसडी जैसे ब़ड़े संस्थान की बदौलत थियेटर नहीं है। मंदी में फिल्म और टीवी उद्ययोग को काफी फायदा दिया पर थियेटर को नहीं। जैसे मंदी के बाद भी जिंदगी अपनी रफ़्तार से चल रही है वैसे ही थियेटर भी ।



इसके अलावा आप क्या कर रहे हैं

थियेटर प्ले के अलावा तीन फिल्में फ़्लोर पर है- आगे से राइट, मिर्च, लम्हा। इनमें मेरा पॉजिटिव रोल है।

मंगलवार, 23 जून 2009

आसमानी रंग























नीला आसमान रंग भी बदलता है कभी लाल तो कभी पीला। सुबह और शाम के नज़ारे तो देखने लायक ही रहते है। जब बादल आ मिलते है तो ऐसा ही रंग होता है .





गुरुवार, 18 जून 2009

लक्ष्मीकांतशर्मा


एक दिवसीय दौरे पर जबलपुर आये जनसंपर्क मिनिस्टर लक्ष्मीकांत शर्मा से मैंने छोटी सी बातचीत की और जानेउनकी जिंदगी के अनछुए पहलू।
प्रारंभिक पढ़ाई- लिखाई कहां हुई

बचपन से बीए तक की पढ़ाई मैंने सिरौंज में की। उसके बाद एमए और एलएल बी की पढ़ाई के लिए गंजबादसौदा आया और वहीं से पढ़ाई पूरी की।

आम आदमी से विशिष्ठ आदमी बनने के बाद कोई नुकसान भी उठाना पड़ता है?

मैं अपनी बात करूं तो मैं विशिष्ठ आदमी बिल्कुल नहीं। आम आदमी था और आज भी आम ही हूंॅ। मैं लोगों के बीच रहता हूंॅ।

तो क्या घरवालों को समय दे पाते हैं

नहीं। राजनीति में काम के तरीके अलग होते हैं। इसलिए उनको पर्याप्त समय नहीं दे पाता।

राजनीति से आपका लगाव कब से था? क्या बचपन से ही राजनेता बनना चाहते थे।

नहीं। बचपन में तो राजनीति के बारे में नहीं सोचता थ्ाा। संघ की कार्यप्रणाली अच्छी लगती थी। मैं उससे ही जुड़ गया। विश्व हिंदू परिषद से भी जुड़ा था। वहीं काम करते कब राजनीति में आ गया पता भी नहीं चला। 1993 में पाटीo की ओर से टिकट मिली और मैं जीत गया।

पहले की राजनीति और अब की राजनीति में क्या अंतर है

अब राजनीति सुविधाओं वाली हो गई है। पहले की तरह अब गांव- गांव पैदल चलकर लोगों से मिलना नहीं पड़ता। तब क्या कारण है कि आज का युवा राजनीति से दूर हो रहा है आज का युवा पहले अपने करियर के बारे में सोचता है। राजनीति या सेवा आदि की अपेक्षा उसे करियर सिक्योर करना जरूरी लगता है। इसलिए राजनीति को वह किनारे रख देता है।

बचपन का कोई सपना जो पूरा नहीं हो सका हो

बहुत सपने मैं नहीं देखता पर बचपन से चाहता था कि आम आदमी की मुश्किलें कम हो। आम आदमी को सर्वसुविधा संपन्न्ा देखना ही मेरा सपना है। मैं उनके लिए कुछ करने के लिए प्रयासरत हूं।

आपने बेतवा महोत्सव शुरू किया है इसकी उपयोगिता क्या है? इस दौरान नदी के उत्थान के लिए कुछ होता है

सांस्कृतिक महोत्सवों से संस्कृति अक्षुण्ण रहती है। इनका विस्तार होता है। नदी के उत्थन के लिए समिति है यह वर्ष भर काम करती रहती है।

बुधवार, 17 जून 2009