शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

विजय

vijay sirf
शहरी जिंदगी व्यस्ततायें ही व्यस्ततायें, शाम हो या सुबह । बस भाग दौड़ । ऐसे में जब खुद बनाने की भी नौबत आयी है तब विजय की याद आना स्वाभाविक ही है । उसे रहते मुझे कोई काम करने की जरूरत ही कहॉं पड़ती थी । विजय एक नौकर था, कहना उचित नहीं है । वह इतना कर्तव्यपरायण था कि उसे अभिभावक ही कहना पड़ेगा ।

जब मैं उसके संपर्क में थी, वह चौदह वर्ष का रहा होगा । गहरा सॉंवला रंग, उम्र के हिसाब से औरसत उसकी लम्बाई । गोल-चेहरा, जिस पर छोटी-छोटी काली ऑंखे, थोड़े चपटे लेकिन संतुलित नाक के साथ सुन्दर दिखती थीं । आगे ललाट पर गोलाई में कटे बाल उसके चेहरे को और गोल बनाते थे । कभी-कभी लड़कियॉं जब मजाक के मूड़ में होतीं तो उसे `लालकूट ` कहकर छेड़ती ! पहनावे में एक लम्बी बनियान और हाफ पैंट बस । पॉंव में चप्पल आदि पहने मैंने उसे कभी देखा नहीं ! उसमें गजब की फुर्ती थी । अभी यहॉं और अगले ही पल वहॉं । बीस-पच्चीस लड़कियॉं, वार्डन और उनके बच्चे जब-तब विजय विजय पुकारते रहते और विजय विद्युत की गति से दौड़ कर न सिर्फ सबके पास पहुॅंचना बल्कि सबकी मॉंगे भी पूरी करता । शुरू-शुरू में खाना-परोसते, खिलाते काम करते विजय की ओर मैंने अधिक ध्यान नहीं दिया । एक दिन मैं दवा खरीदने अकेली जा रही थी तब वार्डन ने विजय को साथ ले लेने की सलाह दी । एक आवाज पर वो मेरे साथ हो लिया । थोड़ी ही दूर लाने पर मुझे ज्ञात हुआ विजय साथ नहीं है । मुड़कर देखा तो वो पीछे-पीछे आ रहा था । मैं उसके लिए रूकी । जब वो पास आया तो मैंने चलना प्रारंभ किया, साथ ही अपनी चाल धीमी कर दी । थोड़ी देर बाढ़ वह पुन: पीछे था । मैंने फिर से इंतजार किया । पास आने पर पूछ बैठी -तुम इतना धीरे चलते हो । वह हॅंसने लगा । हॅंसी तो मैं भी पर मुझे आश्चर्य हो रहा था । वह रूक कर बोला-दीदी मैं तो बहुत तेज चलता हॅंू, इतना कि आप मेरे साथ चल भी नहीं सकेंगी । मुझे पूछना पड़ा- आखिर तब से इतना धीरे क्यों चल रहे थे । मुझे बार-बार तुम्हारे लिए रूकना पड़ रहा है । उसने बड़ी शांत आवाज में कहा, ``मैं आपके बराबर में कैसे चल सकता हॅंॅू``- नौकर होकर ! उसे फटे होंठ मुस्कुराते रहे, मैं आवाक् थी । फिर भी बोली ``मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है । मैं अन्य लड़कियों जैसी नहीं हॅंू । मेरे साथ आये हो तो मेरे साथ चलो ।`` वह हॅंसा और मेरे साथ चलने लगा । पर उसका साथ बड़ा ही निराला निकला । दरअसल वह मेरे समानांतर लेकिन काफी दूर चल रहा था ।
सुबह 6 बजे ही वह हर दरवाजा खटखटा कर सबको चाय सर्व करता । प्राइवेट हॉस्टल की वजह से हर लड़की के कोचिंग या क्लासेस के टाइम्स अलग थे । वह न सिर्फ सबका समय याद रखता बल्कि उसी हिसाब से नाश्ता या खाना बनाकर खिलाता भी था । हम आश्चर्य करते इतना छोटा बच्चा अकेले इतने लोगों का खाना कैसे बनाता होगा । मैं जब भी ऐसा कोई प्रश्न करती तो जबाब मिलता, ``हो जाता है दीदी, आदत हो गई है । हॉं, अगर संतोष मेरा साथ देता तो काम और भी जल्दी पूरा होता । पूरा, वह बहुत आलसी है ।बहुत धीरे-धीरे काम करता है । सब्जी काटने में ही आधा घंटा लगा देता है, इसी से उससे कुछ कहने की अपेक्षा मैं खुद ही कर लेता हूॅं ।`
` एक दिन जब सुबह-सुबह मैं हॉस्टल में ही थी, तभी विजय का एक और रूप देखा । वह तेजी से मेरे पास कमरे में आया और बोला-`` दीदी, मैं दरवाजा सटा दे रहा हॅंू, पंद्रह मिनट के बाद ही बाहर निकलिएगा ।`` इसी से बाहर निकल कर देखना जरूरी हो गया । दरवाजा आधा ही खोला कि देखा विजय `स्वीपर` के साथ आ रहा है । जब तक वह सारे बाथरूम, ट्वायलेट साफ करता रहा, विजय ने एक कदम उसके पास और दूसरा किचन में रखा । शाम के नास्ते के समय मैंने अन्य लड़कियों से चर्चा की ता पता चला विजय तो बस विजय ही है । किसी भी बाहरी पुरूष के आते ही वह रक्षार्थ सर्तक रहता है । अटैच बाथरूम वाले कमरे से लड़कियों को बाहर निकाल कर ही स्वीपर को अंदर आने देता है । मैं उस पर मुग्ध हुए बिना न रह सकी । उसी रात एक अविश्वसनीय सत्य से मेरा साक्षात्कार हुआ । रात करीब बारह बजे मैं टेबललैम्प जलाकर पढ़ रही थी । तभी रजनी मेरे कमरे में आयी और बोली, ``चल देख न विजय को कितना पीट रही हैं ।`` मैं हड़बड़ा कर खड़ी हो गई । विजय को ? विजय को भला कौन पीट सकता है ? अरे आन्टी लोग और कौन? चल न,बाहर । ``किचन से आवाजें आ रही है । रजनी की बात पर मैं अस्त-व्यस्त बाहर निकली । सचमुच किचन से रोने चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं । चप्पलों की खटाक-खटाक के बीच अचानक खट से आवाज आयी-जैसे कोई धातु का सामान गिरा हो । हम दोनों चिंतित हो गयीं । क्या करें अब?पर बारह बजे रात को हम बगल के ब्लॉक में बने किचन में जाने का कोई बहाना नहीं ढूंढ़ सकीं । रात का खाना, चाय सब हमें मिल चुका था । पानी था ही । तब आधे घण्टे तक धुलाई की आवाज सुनतीं रहीं फिर अपने-अपने कमरे में चली गई । मन बहुत अशांत था आगे पढ़ना नहीं हो सकेगा,सोचकर बत्ती बुझा दी । पर कमरे का अंधेरा मन पर हावी हो गया । बेचारा..........भला उससे क्या गलती हुुई होगी ? इतना कर्मठ इतना सेवापरायण यहां तक की हर लड़की का ख्याल अपनी बहन की तरह रखता है, रजनी कह रही थ्ाी-हर-पंद्रह दिन के बाद यही सब होता है । उसे मार खाते सुनकर, जानकर भी हम कुछ नहीं कर सकी । नींद आंखों से दूर हो चुकी थी । बार-बार उसका मुस्कुराता चेहरा आंखों के चारों ओर घूम रहा था । जैसे ही आंख बंद करती वहीं मासूम चेहरा । मन में ढेरों बातें आयीं । अगर विजय इसी पीटता रहता है तो यहां काम क्यों करता है । छोड़ क्यों नहीं देता यह नौकरी? कल मैं पूछूंगी । हॉं, मैं तो उसे काम छोड़ने की सलाह दूंगी। इस तरह भला कोई मार खाता है । आह ! कैसी चीख थी ? विजय और उसकी समस्याओं मेंं अटका मन जब थक गया तो नींद आ सकी ।
सुबह उठने पर रात की बात याद आयी । बेचारा विजय शायद अभी तक सिसक रहा हो । क्या जाने पीड़ा की वजह से वह सो सका होगा या नहीं । चलो, अब तो आज बिना नाश्ता किए ही जाना होगा । तभी गिलासों की खनखनाहट सुनाई दी । चाय? चाय कौन लाया? मैं सोच ही रही थी, तभी दीदी, अपने चिरपरिचित अंदाज में पुकारते हुए वह अंदर आया । चाय का ग्लास टेबल पर रख, जाने को मुड़ा । उसकी कार्यशैली देख विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि यही विजय रात को पीट रहा था । विजय ! मैंने संजिदा आवाज में पुकारा । वह पीछे पलटा और मुस्कुराया ! मुस्कुराहट के बावजूद उससे चेहरे पर वेदना झलक रही थी । होंठ और गाल सूजे हुए थे । ऑंखें अत्यंत उदास और पीली थी । इतना छोटा बच्चा और कैसे अपना गम छुपाना जान गया है । मैं सोचती रही और परीक्षक की दृष्टि से उसे देखती रही । जाने कैसे वह मेरे मन की बात जान गया और बोला, दीदी, ये तो रोज की बात है । कुछ नया नहीं है आप चिंता मत कीजिए । लेकिन तुम कोई मार खाने लायक गलती कर सकते हो क्या? तुमने ऐसा क्या काम किया था ! मेरा कुतुहल बरकरार था । बाद में दीदी चाय ठंड़ी हो जाऐगी, देने जा रहा हॅंू, कह, वह जाने लगा । मैंने उसकी बॉंह पकड़ ली- तुम बात तो नहीं टाल रहे हो । कोई फायदा नहीं है, दीदी । कुछ नहीं हो सकता ! अब उसकी ऑंखे डबडबाने लगीं । सांत्वना पा कहीं उसके जख्म हरे न हो उठे ! इसलिए उसे जाने दिया । दोपहर के बाद मैं निश्चित बैठी थी । अचानक तेज कदमों से चलता विजय दिखा । मैंने उसे पुकार लिया । पास आकर वह किसी अपराधी की भांति खड़ा हो गया-``बड़ी जल्दी में हो क्या ?`` मैंने हल्क-फुल्क अंदाज में बात शुरू करनी चाही । ``हॉं दीदी! शाम का नाश्ता बनाना है !`` कह, मुझपर भेद भरी दृष्टि डाली ! मैं सब कुछ जानने को आतुर थी, इसी से विजय को जाने नहीं देना चाहती थी । घुमा-घुमाकर बात करने का समय न पा, मैंने सीधे-सीधे ही सवाल किया-रात में क्या हुआ था ? ``दीदी, आप लोगों को रात की चाय देने के बाद नींद आने लगी थी, इसलिए मैं सोने जा रहा था । आन्टी आयीं और पूछने लगीं कि सुबह नाश्ते के लिए आलू उबाले या नहीं । मैंने बता दिया कि नींद आ रही है, सुबह जल्दी उठकर सब कर दूॅंगा ! बस.......... और कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी दीदी, आण्टी और मनोज भैया दोनों ने मिलकर.....!`` आगे के शब्द आंसुओं में डूब गये ।
किसी लोहे आदि से भी मारा था क्या ? मैंने हर बात अच्छी तरह जानने के लिए पूछा? जवाब में उसने चित्कार भरते हुए कहा,-लोहे के छड़ से पीठ पर लगी है । पीठ देखने पर तीन गहरी नीली रेखाएॅं दिखीं । मेरे पास तो तत्काल कोई दवा भी नहीं थी । मैंने शाम को दवा ला देने का आश्वासन दिया ! साथ ही काम छोड़ देने की सलाह भी दी । जवाब में वह व्यंग्य भरी मुस्कान बिखेरता रहा । मुझे आश्चर्य हुआ, इसलिए बोली-अरे पागल, यहॉं पैसे ज्यादा मिलते हैं क्या? मार और अपमान की परवाह करो, पैसे की छोड़ों ! आखिर सारे दिन मशीन की तरह काम करते हो । वह फिर हॅंसा ! वही भेद-भरी मुस्कान । मुझे खीज आ गई । अरे भाई, कुछ साफ-साफ बताओगे भी, मैं लगभग चीखी । अचानक उसके चेहरे की मुस्कान गायब हो गई और उसने बड़ी ही अजीब कथा सुनाई । दीदी, वेतन मेरा कितना है, ये तो मुझे भी नहीं मालूम । आन्टी मेरे ही गॉंंव की हैं । मेरे अम्मा-बाबूजी इनके खेत में ही काम करते हैं । मेरे काम के बदले जो भी पैसे हुए सब अम्मा को ही मिलते है । साल में कभी एक या दो दिन के लिए ये लोग घर जाते हैं तो मैं भी जाता हॅंू । वर्ना यहीं रहता हॅंू । जब से यहॉं थोड़ी-सी गलती या कोई बात पसंद न होने पर खूब पीटते हैं । एक बार तो मैं भाग कर गॉंव चला गया था । दो दिन बाद ये लोग वहॉं गये और मुझे खूब मारा खूब । अम्मा भी कुछ नहीं बोलीं । उल्टा भाग कर आने के लिए मुझे ही डांटने लगीं । मैं फिर से यहॉं आ गया । मैंने कहा, ये कोई तरीका नहीं है विजय, अपनी मम्मी को बताओ यहॉं क्या होता है । जवाब में उसने बताया,-दीदी अम्मा या बाबूजी कोई हो, इन लोगों के पक्ष में ही रहते हैं । उनको लगता है, इतना बढ़िया शहरी जैसा बात करना सीख गया है । खाना भी शहरी बनाता है । उन्हें तो पता है शहर में कम काम करना पड़ता है । यहॉं आराम ज्यादा है और पैसा भी गॉंव की अपेक्षा ज्यादा । यहॉं भी मेरे हिस्से का पैसा तो उन्हें ही मिलता है । मेरी तीन छोटी-छोटी बहनें हैं । अम्मा उन लोगों की शादी शहर में करेगी, इसलिए पैसा जमा कर रही है । अब मेरी बोलती बंद थी । क्या समझाऊॅं, क्या सुझाउुॅं? उसने ही हॅंसकर कहा-यही जिंदगी है, जाने दीजिए । बड़ी होकर मेरी बहनें मेरा नाम लेंगी । फिर मुझे असमंजस में ही छोड़कर वह शाम का नाश्ता बनाने चला गया ।
इसके बाद भी मैं विजय और उसकी समस्याओं में उलझी रही । अब वो काम छोड़ने को ही तैयार नहीं तो क्या करूॅं ! और कैसे है उसके मॉं-बाप? क्या पता गॉंव की मिट्टी में रचे-बसे बड़े ही सीधे-सादे लोग हों । सहेलियों से चर्चा करने पर भी कोई अच्छा समाधान नहीं निकला । दो-तीन दिन बाद ही वार्डन की बेटी नीली ने मुझे साथ खाना खाने का निमंत्रण दिया । मैंने स्वीकार किया और उसके फलैट में चली गई । खाना खिलाते समय विजय जग से पानी डाल रहा था कि थोड़ा पानी छलक कर टेबल पर गिरा और चटाक से नीली का हाथ विजय के गाल पर पड़ा । मैं सन्न रह गई । नीली विजय की हम उम्र ही होगी । ऐसी गुस्ताखी ! पास खड़ी आन्टी ने भी विजय को ठीक से काम करने के लिए डॉंटा । मेरे मुॅंह का और गले से नीचे नहीं उतर सका । एक मानव का दूसरे मानव पर ऐसा अधिकार । महानगर में ऐसी है इक्कीसवीं सदी ।कहॉं है मानवता ? विजय आज ही हॉस्टल छोड़ेगा, सोचकर मैं क्षुब्ध मन से अपने कमरे में आ गई । शाम के नाश्ते पर मेरी उससे मुलाकात हुई । मैंने कहा-विजय, चलो तुम मेरे घर पर रहना, मेरे पापा तुम्हें बेटे जैसा प्यार देंगे । पर, वो तैयार नहीं हुआ ! एक तरफ उसे वार्डन और घरवालों का डर था दूसरी तरफ वो अपनी मॉं या बहनों से नाता तोड़ना नहीं चाहता था । बिना रिश्ता तोड़े उसका कहीं और जाना कहॉं संभव होता । कुछ दिन बाद, मैंने हॉस्टल छोड़ दिया । आज विजय पता नहीं कहॉं होगा । हॉस्टल में ही अब भी पीटता है या कहीं और है ।शायद बहनों को ब्याह हो गया हो । कौन समझेगा उसके परिवार में उसका लगाव उसका त्याग । आज भी सचमुच इंसान कहला सकने वाले विजय का बार-बार स्मरण हो ही जाता है ।

बुधवार, 28 जनवरी 2009

राम कहानी



















इतने दिनों से मैंने कोई पोस्ट नही डाली है तो शायद लोग सोच रहे हो की मैं फ़िर से अपना ब्लॉग बंद न कर दू. दरअसल मैं इन दिनों काफी व्यस्त थी। १९ जनवरी का दिन खास दिन था. उस दिन यहाँ हमने ब्लोगेर मीट किया. जी अब तो आपलोगों को निश्चित रूप से हमसे इर्ष्या होगी. अवि और बताएं इस दिन मैं, डूबेजी , गिरीशबिल्लोरे मुकुल जी, मिस्टर बवाल ,विवेकरंजन श्रीवास्तव जी, आनंद कृष्ण जी, संजय जी और सबसे मजेदार बात कि अपने उड़न तस्तरी जी यानी कि समीर लाल जी भी इस मीट में शामिल थे. समीर जी के आने कि खुशी में ही मुकल जी ने यह पार्टी रखी थी. मजा आया. हमने बहुत सारी बातें कीं. हमारी यह पार्टी नेशनल और इंटरनेशनल स्टार की रही. क्योकि पहले फुरसतिया जी का कॉल आया . हमसब ने उनसे बातें की उसके बाद पार्टी में इलाहाबादी तड़का लगा।उनसे भी सभी ने बातें की. इसतरह से पार्टी नेशनल स्टार की हुई . और कनाडा से समीर जी आए थे इसलिए यह इंटरनेशनल भी हुई. हैं न मजेदार बात. उसी पार्टी में एक सेमिनार के बारे में पता चला. तो मैंने सोचा चलो मैं भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा लू. और उसी की तैयारी में व्यस्त रही. सेमिनार तो संपन्न हो गया. उसके बाद आगया २६ जनवरी. अखबारी दुनिया में छुट्टी तो मिलती नही . २६ जनवरी को एक साथ छुट्टी मिली तो सब मिल के पिकनिक के लिए बरगी डैम गए. सोचिये गायब रहकर इतनी मस्ती की मैंने. पर अब आ गई हूँ ब्लॉग की दुनिया में .


ये हमारी नईदुनिया जबलपुर की टीम है।







रविवार, 18 जनवरी 2009

मेरे हिस्से की धूप








ठण्ड से ठिठुरती
गर्माहट की चाह लिए
आ पहुँची हूँ -
खुले में
ठिठुरन कायम है
गर्माहट का अहसास नही
सब तो घूम रहें हैं
खिले- खिले से -
पल्लवित हो
बस मैं रह गई
बनके कूप
जाने कौन ले उड़ा
मेरे हिस्से की धूप

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

याद





तुमने कहा था
याद मुझे करना
बस गए हो जब तुम
अंग - अंग में
याद करने के लिए
पहले भूलना होगा तुम्हें

शनिवार, 10 जनवरी 2009

बाबुल की बिटिया बाबुल से पूछे







बेटियाें की किलकारियां घर आंॅगन को गंुजायमान रखती है। वे अपने जनक के घर आंगन की वह मिट्टी होती हैं, जिनके बिना आंगन का अस्तित्व बेगाना लगता है। बाद में ससुराल जाकर भी वे उस नये घर को अपनी गंध से सुवासित करती है। मान अपमान के बावजुद वे बाबुल के घर को अपने ममत्व,लगााव और प्यार से सींच कर रखती हैं। जब पति के घर जाती हैं तो सारे दुख ,अपमान को भूला,ढेर सारा प्यार लगाव थाती बनाकर अपने साथ ले जाती हैं। जीवन भर बाबुल का घर उसके लिए पूजा के फूल से ज्यादा पवित्र रहता है। सदियों से सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं ने कन्या के लिए बाबुल की गली और उसकी ममता छोड़ पराये घर जाने का नियम बनाया है। आज वही कन्या या तो दहेज के लिए ससुराल में मारी जा रही है या बाबुल के घर में कोख में ही दम तोड़ रही है। पूरी मानवता को शर्मसार कर देने वाली ऐसी घटनाएं पूरे देश में गांव गांव में हो रही हैं। इन मासूमों को छेद-छेद कर प्राण लेने में ---- हाथ नहीं कांप रहा। जिस ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है, उसने पुरूष और स्त्री को को बनाकर सृष्टि में संतुलन रखने की कोशिश की है, जिसका लाभ हमारा ही है। इसेे बिगाड़ कर हम अपना ही परिवेश खराब कर रहें हैं। क्या लड़कियों के बिना दुनिया की कल्पना की जा सकती हैं कभी देख है बिना बेटियों वाला या बिना गृहण्ी वाला ? उस घर में सबकुछ होते हुए भी वहां कुछ भी नहीं रहता है। उस घर का सारा सौन्दर्य, सारा श्रृंगार, सारी जीवंतता और सारी गरिमा लापता रहती है। बेटियां स्वभावत: ही संतोषी होती हैं। कुछ नहीं मांगती वे अपने पिता से, थोड़ा प्यार भी नहीं, जा उसकी जरूरत है,थोड़ी स्वच्छंदता या समानता कुछ भी नहीं, जो उसका हक है। पर उसे प्यार देने,उसका प्यार पाने, उसे जीने देने खुश होने और कुछ करने का अधिकार तो देना दुर की बात है। हम तो उससे सृष्टि में आने का अधिकार ही छीन रहें हैं, उसकी निर्मम भ्रूण हत्या करके। बेटियों की विदाई का यह कौन सा रुप है?

सोमवार, 5 जनवरी 2009

हरेराम की डायरी






मेरी इस कहानी ने मुझे २००७ का नवलेखन पुरस्कार दिलवाया था यह कहानी रचनाकार.कॉम पर भी है

कलम की स्याही से लिखे शब्दों को आँखों के मोती फीका बना रहे थे, पर हरेराम ने न लिखना बंद किया और न आँसुओं ने रूकना स्वीकार किया । फैले-फैले-से शब्द चोट, दर्द और दुःख की रागिनी बजाते जा रहे थे । हरेराम इस रागिनी में डूबने लगा । क्या मिला यहाँ आकर? आँखों में एक-एक कर परिवार के हर सदस्य का चेहरा घूम गया । भरी आँखों और रूँधे गले से आशीर्वाद देता माँ का चेहरा सामने आया तो आकर टिक गया । उन आँखों की करूणा ने हरेराम के मर्म को और कचोटा । उसने साँसे अन्दर खींची और माँ-माँ कहकर माँ की करूणार्द्र आँखों में खो गया ।
माँ बार-बार आँसू पोंछते हुए कहती जा रही थी, ‘‘बेटा-भारत बड़ा ही नहीं, सुन्दर देश भी है । अपने ही देश जैसा । यही हिमालय वहाँ भी है । सब कुछ ऐसा ही मिलेगा । अपने जैसे ही लोग होते हैं वहाँ-सुन्दर, प्यारे और भोले । तू जब वहाँ किसी के खेत के पास जाएगा न तो लगेगा अपने ही खेत में खडा है । मालूम है वहाँ शिवरात्रि, होली, दीपावली, दशहरा, भाई दूज सब मनाया जाता है । जब त्यौहार आएगा तो तुझे लगेगा कि तू अपने ही देश में अपने ही घर में है । समझ लेना बस, दूसरे गाँव आ गया है जैसे-जनकपुर । हम तुझे दूर नहीं भेज रहे हैं बेटा‘‘ और माँ फफक पडी । आगे बढ़कर हरेराम माँ के गले लग गया । पर बोला कुछ नहीं ।
माँ समझ गयी-अभी संशय है मन में ।
धीमे से कपाल चूमते हुए समझाने लगी, ‘‘रामा, बिहार ही तो जा रहा है तू । पता है, कहीं दूसरे देश जाने पर बड़ी चौकसी बरतनी पड़ती है । सरकार की अनुमति मिली तो जाओ वरना बैठो । पर नेपाल से पड़ोस के बिहार जाने में कोई दिक्कत नहीं है । वहाँ काम अधिक नहीं होगा और पैसे भी ठीक मिलेंगे । तू खुद को अकेला मत समझिये । चाचा तो हैं ही । मालिक लोगों से पूछ के जब चाहे चाचा से मिल लेना । और....... चिटृी लिखना तो जानता ही है मन न लगे तो चिटृी लिखाना । अगर मालिक के घर फोन हुआ तो वीरेन्द्र अंकल के घर फोन करना । देख लाएगा जरूर और तू है कि रोता है ।‘‘ माँ ने फिर उसे गले लगा लिया ।
हरेराम बिना कुछ बोले अपना सामान समेटने लगा लेकिन चेहरे का सौम्य भाव बता रहा था कि वह आश्वस्त है । उम्र उसकी सोलह वर्ष हो गयी है पैसे से लाचार पिता पाँचवी से ज्यादा न वढा सके । दो बेटे और चार बेटियों का बोझ है सिर पर । आमदनी का जरिया स्वरूप बस दो कट्ठे का स्त्रोत है । पहले हरेराम खेत में ही काम करता था । पूरा परिवार खेत में पसीना बहाता पर पेट भर से अधिक कुछ मिलता ही नहीं । बिहार में काम करने वाले बर्धन चाचा इस बार जब घर आये तब हरेराम को साथ ले जाने का प्रस्ताव रखा । हरेराम बाहर जाकर कमाएगा तो पैसे आएंगे और बेटियों की शादी हो सकेगी । पर इसके लिए रामा को घर से, अपनों से दूर परदेश में रहना होगा । सोच-विचार के बाद पिता तैयार हो गये । पर हरेराम ही डर गया ।
हरेराम चाचा के साथ निकला । घर से निकलते ही उसकी धड़कनें तेज हो गईं । पता नहीं क्या काम मिलेगा? पता नहीं कैसे लग होंगे? माँ ने खिड़की के पास आकर आवाज लगाई-‘‘डरियो मत बेटा ! कोई दिक्कत हो तो चले आइयो ।‘‘ और वह चाचा के साथ अपनी जन्म-भूमि ‘इनरवा‘ को छोड़ चला । जन्म-भूमि के प्रति आदर या श्रद्धा का भाव अब तक कभी उसके मन में उदय नहीं हुआ था । अभी चाचा लौक्हा जाऍंगे । किसी परिचित से मिलना है फिर भारत या बिहार की तरफ चलना होगा । चाचा अपने दोस्त के बारे में बताते रहे और हरेराम अपने परिचित शहरों जनकपुर, वीरगंज, इनरवा, लौक्हा आदि से बिहार के काल्पनिक शहरों की तुलना करता रहा । कभी उसके दिमाग में पटना का अक्स उभरता, कभी दिल्ली का पर, चाचा तो किसी दूसरी जगह रहते हैं । वह नाम याद करने की असफल कोशिश करता रहा ।
उसकी उम्मीद के विपरीत लौक्हा में चाचा का काम आधे घंटे में ही खत्म हो गया । अब हम बिहार चलेंगे सुनकर उसकी धड़कनें फिर से तेज हो गयी । बस में बैठा तो बस परायी-सी लगी । यही तो पराये शहर लेकर जाएगी । बस चल पड़ी । वह खिड़की से बाहर झाँकता रहा । पेड़-पौधे, तालाब, लोग पीछे छूटने लगे । वह मंत्रमुग्ध देखता रहा । इतना सौन्दर्य-बोध उसे जीवन में कभी नहीं हुआ था । वह अपलक निहारता रहा-अपनी जन्म-भूमि को । बीच-बीच में एक टीस-सी उठती थी-वह जा रहा है अपने वतन को छोड़कर । माँ की बात याद आयी-वहाँ लोग अपने जैसे ही होंगे । उसका मन भर आया । इच्छा हुई मातृभूमि को नमन कर ले । ऐसी देशभक्ति, इतनी कशिश, आह कैसे छूट रहा है देश ! बगल में बैठकर उंघ रहे चाचा ने बताया, हम बिहार में प्रवेश कर रहे हैं । हरेराम नयी फजा को अपलक निहारने लगा । महसूस करने की कोशिश करने लगा उस अपनेपन को जो माँ के मुताबिक यहाँ भी मिलेगा । आधे घंटे तक नये सौन्दर्य का रसपान करने के बाद वह बुदबुदाया, ‘‘पता नहीं, कितना अपना होगा, कितना पराया ।‘‘
एक धक्के के साथ बस रूकी । क्या मंजिल आ गयी, उसने सोचा । नीचे उतरने के बाद चाचा को दूसरी बस की ओर जाते देख उसने पूछा-‘‘हम अभी नहीं पहुंचे हैं?‘‘ ‘‘अभी?‘‘ चाचा हॅंस पड़े - ‘‘पाँच घंटे और लगेंगे । ये तो खुटौना है । मधुबनी का एक शहर । हम मुजफ्फरपुर जाएंगे, बडे शहर में ।‘‘ उसने घूमकर पीछे देखा और इन खुटौना और मधुबनी शब्दों को अपनाने की कोशिश की । चाचा की आवाज पर वह पलटा । चाचा सामने की बस में चढ रहे थे । इस बस में एक भी चेहरा अपना या पहचाना नहीं लगा । मन ही मन वह मुजफ्फरपुर का खाचा खींचने लगा । क्या ऐसा ही होगा, खुटौना जैसा या अपने वीरगंज जैसा । हाँ, वैसा ही तो अच्छा है । गाड़ी बीच-बीच में रूकती, लोग चढ़ते-उतरते । वह अपने ही ख्यालों में खोया रहा । यहाँ की सड़कें इतनी खराब क्यों है वह समझ नहीं पाया । बडे शहर जा रहे हैं, सड़क देखकर तो नहीं लगता । अब वह सोच-सोचकर थक चुका था और मंजिल को जल्द पा लेना चाह रहा था । इस बार बस रूकी तो चाचा मुस्कुराए । ‘‘चल उतर बेटा, पहुंच गए ।‘‘
रिक्शे पर बैठकर वह चाचा के डेरे पर आया । हरेराम को शहर, सड़क यहाँ तक कि चाचा का कमरा भी पराया लगा । हाँ, चादर की बुनावट, टोकरियाँ, डब्बे और परदे ने घर की याद दिलाई । ‘‘खाना खाकर सो जाओ, मैं थोड़ी देर में आता हूं ।‘‘ बाहर से मँगवाया टिफिन हरेराम को देकर वे चले गये । भोजन का स्वाद तो दूसरा था ही, पानी का स्वाद भी अपना नहीं लगा । थकान काफी हो गई थी इसलिए सो गया । सुबह जब वह जागा तो चाचा तैयार हो चुके थे ।उसे जगा देख बोले, ‘‘चल, तू भी तैयार हो जा । जब तक तुझे काम नहीं मिलता मेरे साथ चल ।‘‘
वह दुकान मिठाई की थी । सजी और खुशबू से भरी । चाचा पुराने और वफादार होने के कारण कैश काउंटर पर बैठते हैं । हरेराम भी बैठा । दिन भर दुकान में आते-जाते ग्राहकों को देखा । तरह-तरह के लोग थे । कैसे ये अपने हो सकते हैं इनकी तो शक्ल ही अलग है, उसने कई बार सोचा । रात नौ बजे दुकान बंद हुई तो वह चाचा के साथ उनके एक कमरे के घर में लौटा । दिन भर बैठा-बैठा थक गया था इसलिए झटपट सो गया । दूसरे दिन फिर वही दिनचर्या । दोपहर को अंदर से खाना खाकर जब वह चाचा के पास आया तो वे खुश दिखे । हँसकर कहा,‘‘बेटा! एक परिचित है । कल से उनके घर तेरी नौकरी पक्की । काम कुछ खास नहीं है । तीन-चार लोगों का खाना बनाना है । थोड़ा घर का काम भी होगा । पांच सौ रूपये महीना मिलेंगे ।‘‘ हरेराम को कोई खुशी नहीं हुई । वह कहाँ ठीक से खाना बनाना जानता है । धीमे से बोला,‘‘चाचा!‘‘ पर चाचा अपनी ही रौ में बोलते चले गये-‘‘वहां तीन छोटे बच्चे हैं, साथ में खूब खेलना ।‘‘ बच्चों और खेल के नाम से वह हर्षित हुआ ।
कलम सरपट दौड़ती जा रही थी और हरेराम की इकलौती डायरी के पन्नों को उसकी यादों, अनुभवों से सजाती जा रही थी । आज यहां दस दिन हो गए तब फुर्सत मिली । नहीं फुर्सत क्या मिली? वह तो दुःख भुला रहा है इन कागजों के अपनेपन में । उसे इस घर का पहला दिन याद आया । वह मुस्कुराया और कलम दौड़ चली । सुबह गोल से चेहरे पर खिचडीनुमा दाढ़ी तथा औसत कद वाले एक पैंतालीस-पचास वर्षीय सज्जन आकर उसे लिवा गए । चाचा ने आश्वासन दिया -मैं बीच-बीच में आऊंगा मिलने । फिर कागज पर अपने मिठाई दुकान का नम्बर भी दे दिया ।
और हरेराम आ गया एक और अजनबी घर में । सबसे पहले तीन बच्चे दिखे । एक लड़का हमउम्र, दूसरा छोटा और एक प्यारी-सी छोटी बच्ची । वह मुस्कुराया, अपनेपन से ,वे मुस्कुराए कुतुहल से । उसे पूरा घर दिखाया गया । तीन कमरे एक स्टोर रूम, एक आँगन, एक किचन, बरामदा, बाथरूम आदि । गृह मालिक अर्थात् अंकल (वर्धन चाचा ने इन्हें अंकल पुकारने को कहा था) बोले, हरेराम, चलो झाडू लगा के दिखाओ । हम तुम्हारी सफाई देख । उसने झाडू उठाया और कमरे, आँगन, छत, सीढ़ी, बरामदा आदि सबको साफ किया, फिर पोंछा लगाया, बर्तन धोए । वह थक गया । पर अभी शुरूआत थी ।
छोटी कंचन ने पुकारा, हरेराम, किचन में आओ । वह पाँव धोकर किचन में आया । आंटी नहीं हैं, उनका स्वर्गवास हो चुका है । इसलिए अंकल खुद ही खाना बनाते हैं । वे बोले, अभी देख लो हम कैसे खाना बनाते हैं । कल से तुम्हें ही बनाना है । हरेराम ने आलू-बैंगन धोए, काटे, दाल-चावल धोए । लगन से सब्जी बनना देखता रहा । यहाँ तो सब्जी अलग तरीके से बनती है । पर प्रत्यक्ष में उसने कुछ नहीं कहा । खाना तैयार होने पर उसने सबके लिए खाना परोसा, सबको खिलाया । फिर बर्तन धोया । बाल्टी में कपड़े पड़े थे, उन्हें भी धोया । तब जाकर अंकल ने आवाज लगाई और एक छोटी थाली में थोडा चावल-दाल-सब्जी सब एक के ऊपर एक डालकर पकड़ा दिया । पेट तो उसका भरा नहीं और किसी ने कुछ पूछा भी नहीं । भूखे रहने पर भी संकोच के कारण वह कुछ कह नहीं सका । शाम को सबके लिए पकौड़े बनाए । चाय भी बनाई । पकौड़े बनाते समय उसकी भूख उबल पड़ी । पर, अंकल से पूछे बिना कैसे खाए, सोचकर उसने भूख टालने की कोशिश की । सबके खाने के बाद उसे एक पकौड़ा मिला । बुरा लगने पर भी वह चुप रहा । तीनों बच्चे छत पर खेल रहे थे । वह चुपचाप किनारे खड़ा उन्हें लालायित दृष्टि से देखता, पहले के धुले कपड़ों को तह लगाता रहा । नीचे आया तो रात के खाने की तैयारी करनी थी । मिलकर खाना बनाते-खिलाते और बर्तन धोते ग्यारह बज गए ।
कारखाने के सामानों वाले स्टोर में हरेराम को सोने के लिए कहा गया । कमरे में आकर देखा तो चारों तरफ के रैक पर सामान भरे थे । जमीन पर एक ओर पाँच-छः कार्टून रखे थे । दो तरफ दो पुरानी कटिंग मशीनें रखी थीं । दरवाजे के एक तरफ दो बड़ी बोरियों में लाल रखा था । बीच में थोड़ी-सी खाली जमीन थी, वहीं एक टाट बिछा था । अभी वह सोच ही रहा था कि इस छोटी-सी जगह में वह सोएगा कैसे, तभी कंचन की आवाज आयी, हरेराम, दरवाजा अंदर से बंद कर लीजिएगा । उसने पलटकर देखा जरूर पर बोला कुछ नहीं । दरवाजा बंद करने से तो साँस लेना मुश्किल होगा, सोचता हुआ वह अंदर आया और खिचड़ी खोलने की कोशिश करने लगा । मशीन की वजह से खिड़की का दरवाजा थोड़ा ही खुल सका । जब वह लेटा तो पाँव पूरा खोलने में दिक्कत आयी । किसी तरह तिरछा होकर लेट सका । माँ-बाबूजी तथा नये घर के बारे में सोचता हुआ वह काफी देर में सो सका ।
दरवाजा खटखटाने की आवाज से हरेराम की नींद खुली । आधी रात के समय मुझे क्यों उठाया, सोचता हुआ दरवाजा खोला तो सामने अंकल खड़े थे-इतनी देर तक सोते हैं हरेराम ! देखिए, सवा चार बजे हैं, कम से कम चार बजे तो उठना ही पड़ेगा ।
हरेराम की समझ में नहीं आया । अभी-अभी तो सोया था । इतनी जल्दी चार कैसे बज गए । उसने आकाश की ओर देखा, पर कुछ समझ में नहीं आया । इतनी सुबह उठने की आदत होती तो जरूर समझाता । घर में सबसे अधिक सोता था -साढ़े छह बजे तक । खैर, उसने आँखों में पानी के छींटे मारे । नींद वाकई पूरी नहीं हुई थी क्योंकि पानी डालने की वजह से आँखें जलने लगीं । अहले सुबह यहाँ कौन-सा काम होता है, समझने के लिए वह अंकल के सामने खड़ा हो गया ।
तुम कुंभकरण हो? एक तो इतनी देर तक सोते हो, उठाया तो खड़ेखड़े ही सोने लगे । चलो, पहले बरामदा, आँगन में झाडू लगाओ फिर किचन में झाडू-पोंछा दोनों । और आलसी की तरह काम नहीं करना है । बउआ लोगों के लिए नाश्ता बनाना हैं । निहायत रूखे स्वर में अंकल ने झिड़का ।
सकते में आये हरेराम के पैर सीढ़ी के नीचे बने रैक की ओर बढ़े । झाडू उठाया और भरसक तेजी से काम शुरू किया । किचन की ओर जाते समय बच्चों के कमरे की ओर नजर पड़ी, सभी सो रहे थे । हम उम्र तरूण भी । बताए गए कार्य समाप्त कर वह अपने धीमे मधुर स्वर में बोला, पोंछा लग गया । सब्जी क्या बनाऊॅं?
तुम्हारी खोपड़ी में भूसा है ।दस बार समझाना पड़ेगा? एक बार बताया कि बउआ लोग स्कूल जाऍंगे नाश्ता बनाना है, तब समझ में नहीं आया । कल ही न खाना बनाना सिखाये हैं । दिमाग खा जाओ, सबेरे-सबेरे मेरा । अरे जाओ, आलू उबालो, आटा गुंथो । फिर खाने के लिए रसीली और टिफिन ले जाने के लिए सूखी सब्जी बनाओ । कंचीनुमा आँखों को फैलाकर लगभग चीखने ही लगे अंकल ।
अभी सब्जी अच्छी तरह से बनी भी नहीं थी कि बच्चों को उठाने तैयार कराने का निर्देश मिला ।
सबको उठाकर उनका बिस्तर ठीक कर हरेराम मोटर चलाकर पानी भरने गया । यहाँ पानी की कोई टंकी नहीं है । बस एक नेपाली मोटर है जिससे सप्लाई वाला पानी आसानी से खिंच जाता है । अब पानी तो भरकर रखना ही होगा और हरेराम के सिवा है ही कौन? एक भरी बाल्टी बाथरूम में तथा एक आँगन में, दो किचन में रख वह नाश्ते के लिए पराठे सकने लगा । नाश्ता बनाने, खिलाने में ही हरेराम थक गया । तीनों उसे बार-बार दौड़ते । बच्चों के स्कूल जाने के बाद बाकी कमरों तथा छत की सफाई की । पहले तल्ले पर लहठियों (लाख की चूडयाँ) के डब्बे बनाने का कारखाना था । उसकी सफाई भी हरेराम को करनी थी ।
रूक-रूककर दो बार जम्हाई आयी तो हरेराम सीधे खडे होकर अंगडाई लेने लगा ताकि नींद और थकाना दोनों दूर हो जाऍं । तभी एक जोरदार गर्जना हुई , बिना काम किए ही बैठ के देह अइठ रहा है? वह घबराकर सीधा खड़ा हो गया । पास आकर अंकल बोले, लगता है तुम बहुत आलसी हो, लेकिन यहाँ रहना है तो हमारे तौर-तरीके से चलना पड़ेगा । बैठ के देह अइठने से काम नहीं चलेगा । जल्दी से मेरे लिए पराठा सेको । साथ-साथ दोपहर का खाना भी बनाते चलो । बउआ लोगों का कपड़ा भी धो लो ।
बताए गए कार्य समाप्त करने में दस बज गए । वह अब नहाना चाहता था । पर कल से अब तक के बर्ताव के कारण वह ऐसा बिना आज्ञा के नहीं करना चाहता था । किचन के कोने में खडे होकर वह सोचने लगा - अपना घर आखिर अपना ही होता है । काम करो या न करो । जैसे चाहो बैठो, चाहे जैसे रहो । घर में स्नेह, अपनेपन की धारा बहती रहती है । सारे घर की वायु उसी गंध से पूरित होती है । तभी तो अपने घर में आदमी हर परिस्थिति में खुश रहता है । साथ ही मन न लगने की स्थिति भी कभी नहीं आती है । इस घर में क्या अपना कह सकने लायक अपनापन है? उसने नाक सिकोडा, साँस खींचकर सूंघने की कोशिश की कि शायद पता चले । अचानक आवाज आयी- हरेराम! हाथ-पैर धो लो, चाहो तो नहा लो । प्रफुल्लित-सा हरेराम दौड़ पड़ा । पानी का पहला मग जैसे ही अपने ऊपर डाला उसे मिनी की याद आयी । हाथ रूक गया । उसे नहाते समय शिव-शिव कहने की आदत थी । जब भी वह नहाता मिनी ताली बजा-बजाकर हँसती । झिलमिल आँखों के साथ मुस्कुराकर वह फिर नहाने लगा । अभी कपड़े पहन ही रहा था कि अंकल एक प्लेट में रात की बची तीनों रोटियों के साथ सब्जी लेकर आए । प्लेट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, यही सब छोटा-मोटा काम करते हुए ग्यारह बजा दीजिएगा तो और काम कैसे होगा? जल्दी से नाश्ता कीजिए और छत पर आना है ।
ऊपर कारखाने में? मुझे वहाँ भी काम करना होगा? सोचता हुआ वह खाने लगा । ऊपर आठ-दस छोटे-बडे लड़के काम कर रहे थे । कोई कार्डबोर्ड काट रहा था, कोई लेई लगाकर पन्नी चिपका रहा था । कोई ढक्कन मोड रहा था । कोई सूखे डब्बों को एक पर एक रखकर बंडल बना रहा था । चारों तरफ नजर दौड़ता हुआ वह सोचने लगा, मैं क्या करुंगा, मुझे तो ये सब आता नहीं । तब तक अंकल की नजर उस पर पड़ गई । कहने लगे, आदमी निहारने के लिए थोड़े ही बुलाया गया है । ढक्कन कैसे मोड़ा जाता है सीख लीजिए । और बैठ के मोड़िए ।
ढक्कन मोड़ना कोई विशेष मुश्किल नहीं था । हरेराम दो-तीन बार के प्रयास से ही सीख गया । वह बैठकर ढक्कन मोड़ता रहा । थक जाने के बाद तक । नीचे से कंचन ने उसे पुकारा तब उसी छुट्टी हुई । नीचे आँगन में उसका खाना परोसकर रखा था । खाना खाने के बाद बच्चों के लिए शाम का नाश्ता बनाना था क्योंकि तीन बज चुके थे । सूजी का हलवा बनाकर सबको खिलाने के बाद उसने चाय बनायी । अंकल को चाय देकर खुद बर्तन साफ करने गया । अभी कपड़े उठाने हैं । कारखाना बंद होगा तो सारे सामानों को व्यवस्थित करना है । फिर रात का खाना बनाना है । सोऊॅंगा कब? अभी भी नींद आ रही है । अपने कामों का हिसाब लगाते-लगाते वह अन्यमनस्क हो उठा । लगा कि बर्तन धोना छोड़कर थोड़ा सो ले । पर क्या ये सम्भव था? अभी जूतों पर पॉलिश लगानी थी ।
रात को सारे काम निपटाकर जब वह सोने के लिए जाने लगा तो टेबल पर रखा अखबार पढ़ना उसे पसंद है । वह हिन्दी तो पढ़ ही लेता है । क्या पता नेपाल की कोई खबर छपी हो । इसी कमरे में उसका एकमात्र थैला भी रखा था जिसमें चारा कपड़ों के अलावा एक डायरी और पेन भी थी । यह डायरी उसे प्राणों से अधिक प्रिय थी जब उसने पाँचवी कक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त किये तो स्कूल सहित सारा मोहल्ला खुश हो गया था ।सबने उसे पढ़ाई जारी रखने की सलाह दी थी । वह खुद भी कितना लालायित थ पढ़ने को । पर पैसे कहाँ थे? छूट ही गई । उसी दिन तो पड़ोस के विरेनद्र अंकल, जो डॉक्टर हैं, ने खुश होकर एक डायरी और कलम दी थी जिसे हरेराम ने आज तक सम्भाल के रखी है । अंकल की बात उसने गाँठ बाँधी थी कि जब भी मौका मिले, विशेष अवसरों को डायरी में अंकित करो । जब भी कोई विशेष खुशी होती या जब भी डाँट पड़ती उस दिन उसे उसके जज्बात डायरी को समर्पित हो जाते । उसने डायरी उठा ली । नये देश का अनुभव........।
पहले थोड़ा अखबार पढ़ ले फिर इतमीनान से डायरी लिखेगा, सोचते हुए उसे अखबार खोला ही था कि तरूण आया । हाथ में अखबार देखकर क्रोध से बोला, आप रात में पढ़ाएगा? बिजली बिल नहीं बढेगा? पेपर इधर दे दो और लाइट बंद करके चुपचाप सो जाओ । फिर खुद ही हरेराम के हाथ से पेपर लेकर लाइट ऑफ कर दरवाजा सटाते हुए चला गया ।
बंद कमरे के नीम अॅंधेरे में लिखना तो क्या ठीक से सोचने में भी मुश्किल आ रही थी । हरेराम मन मारकर सो गया । पिछले दिन की तरह आज भी सुबह चार बजे उठना पड़ा और वही बिना एक क्षण विश्राम के सारे दिन की मेहनत । आज नाश्ते के समय हरेराम ने तय किया था कि रोज-रोज आधे पेट खाते रहना ठीक नहीं है । आज वह एक रोटी और माँग लेगा । नाश्ते के समय सिर्फ हिम्मत जुटाने की कोशिश करता रहा । इस सोच-विचार में भली प्रकार खाया भी नहीं गया । दोपहर को जरूर माँगूंगा सोचते हुए वह अपने काम में लग गया । शाम के साढ़े तीन बजे खाना मिला । अब बोलता ह, अब बोलता ह सोचते-सोचते वह कई बार रूका । बोलने की कोशिश की पर हिम्मत दगा दे गई । बर्तन धोकर कपड़े उठा लेना, कहते हुए अंकल बाहर निकल गये । खाना खाने के बाद उसने देखा अंकल बाहर हैं बौर बच्चे छत पर । दबे पाँव वह वह बरामदे में गया । पेपर उठाया और आँगन में एक ओर बैठकर पेपर खोला-दैनिक हिंदुस्तान । वह जल्दी-जल्दी ढूंढने की कोशिश करने लगा-अपने देश की कोई खबर हो,न हो तो कम से कम मनीषा कोइराला की कोई फोटो या खबर दिखे । हडबडाहट में शब्द धुंधले दिखाई दे रहे थे ।फटाफट पलट कर सारे पन्ने देख लिये । कुछ खास दिखा नहीं । जल्दी से पेपर वापस उसी टेबल पर रख आया, कोई देख न ले । फिर अपने काम में लग गया, पर डायरी लिखने का अवकाश वह नहीं पा सका ।
वह शुरू से ही काम के प्रति समर्पित रहा है । यहाँ भी वह हर काम पूरे मन से करता है । लेकिन थोड़ी-सी चूक या देर हो जाने पर उसके गालियाँ मिलतीं और निकाल देने की धमकी भी । अजीब लोग हैं, जब कोई आस-पास हो तो प्यार से बात करते हैं-हरेरामजी । ऐसे तो मुझे आदमी ही नहीं समझते हैं । इधर चार दिन से सुबी के काम में एक नया काम भी जुड़ गया है-तरूण की साइकिल को उसके स्कूल जाने से पहले कपड़े से पोंछना भूल गया और नाश्ता बनाने लगा । नाश्ता करके हाथ धोते समय तरूण की साइकिल पर पड़ी तो वह गुस्से से आग बबूला हो गया । एक नंबर के कामचोर हो, अभी तक साइकिल नहीं पोंछा है । सात बज गया और ले दे के कच्ची जली सब्जी ही बन सकी है । पाँच सौ रूपये क्या फ्री में लेगा? डेढ़ सौ में तो लोग इससे ज्यादा काम कर देते हैं । वह आगे सुन नहीं सका । अभी-अभी तो नाश्ता करते समय वह कह रहा था कि आज सब्जी बहुत बढ़िया बनी है और अभी? साइकिल तो मैं अब भी पोंछ सकता ह; अभी तो उसने कपड़े भी नहीं बदले हैं । जूते पहनने,कंघी करने में भी तो समय लगता है, लेकिन प्रत्यक्षतः कोई जवाब न देकर वह चुपचाप साइकिल पोंछने लगा ।
दिन में कपड़े धोते समय बाहर कुछ शोरगुल सुनाई दिया । कुछ लोगों के साथ एक औरत की आवाज भी आ रही थी । कुतूहलवश वह दरवाजे से बाहर झाँक कर माजरा समझने की कोशिश करने लगा । तभी पीछे से उसका टी-शर्ट खींचते हुए अंकल ने कहा, अब ये बाहर की हवा भी लग रही है? चुपचाप जो अपना काम कीजिए । बिना कोई जवाब दिये वह आकर कपड़े धोने लगा । इधर अंकल ऑल इंडिया रेडियो की तर्ज पर बोलते रहे । उसे तो आलसी, कामचोर की उपमाओं से नवाजा ही साथ उसके सारे खानदान के लिए बुरी-बुरी बातें की । फिर कहा, इसी तरह आलसी बन के काम किया तो घर से निकाल देंगे । हरेराम की भूरी छोटी आँखों में आँसू आ गए । कैसे झूठ बोलते हैं ये? सारे दिन तो काम ही करता ह उसने सोचा और जल्दी से आँसुओं के बीच ही काम निपटाने लगा ताकि फिर न रेडियो बज उठे ।
कारखाने में काम करने में आज उसका मन लगा । दरअसल आज सबने उससे बातें की । इधर-उधर की हल्की-फुल्की बातों से उसका मन कुछ हल्का हो गया, सुबह की दोनों झड़पें वह भूल गया । खाने में भी जो मिला उसे संतुष्ट भाव से खाया । शाम का नाश्ता बनाते समय वह धीरे-धीरे गुनगुना रहा था । बच्चे खेलकर आ चुके थे और टी.वी. देख रहे थे । नाश्ते की प्लेट सबको पकड़ा देने के बाद वह भी एक ओर खड़ा हो गया और चूहे-बिल्ली के खेल वाला प्रोग्राम देखने लगा । दोनों की झड़प पर बच्चों के साथ वह भी खूब हँसा । फिर बोला, तुम्हारे टी.वी. में कार्टून ही आता है, गाना नहीं आता हैं? तरूण ने एक गाने वाले चैनल को ऑन कर दिया । सभी हिन्दी फिल्मी गानों की स्वरलहरी में खो गये । तभी अंकल आ गए । अब नौकर जैसा अदना जीव का टी.वी. देखना वे कैसे बर्दाश्त कर सकते थे । सो एक थप्पड़ रसीद करते हुए कहने लगे, मेरे लिए चाय क्या तेरा बाप बनाएगा? बाँये हाथ से गाल सहलाता और दाँये हाथ से आँसू पोंछता हरेराम किचन में चला आया । उसकी इच्छा हुई कि बोल दे, आफ नहीं रहने पर चाय किसके लिए बनाता? पर चुप ही बना रहा । अब उसकी इच्छा हो रही थी वर्धन चाचा से बात कर लेता । पर उसके दिल ने समझा दिया, ऐसी इच्छाऍं दिल में ही रखनी चाहिए । बाहर आने पर कुछ भी हो सकता है । वह चुपचाप खाना बनाता रहा और गाल के निशान सहलाता रहा । दुःख और गुस्से के कारण उसकी भूख मिट गई थी । उसने कहा, आज खाना नहीं खाना खाऊॅंगा । उसे उम्मीद थी सभी उससे खाना खाने के लिए कहेंगे । लेकिन अंकल उसे डाँटने लगे, खाना नहीं खायेगा तो । किसको धौंस दिखा रहा है । मत खाओ । देखो, हम तुम्हारी गर्मी कैसे उतारते हैं?चार दिन खाना-पीना दोनों बंद कर देंगे तब सारी हेकड़ी निकल जाएगी ।
हरेराम अपनी कोठरी में आ गया और सुबक-सुबक कर रोता रहा । आज दस दिन हो गये, इस घर में हर दिन मीन-मेख निकाला जाता । जब-तब डाँट पड़ती है और आज तो चार बार । वह देर तक सुबकता रहा । अंकल और तीनों बच्चे दरवाजा बंद करके सो गए । आज हरेराम लाइट जलाएगा, लिखेगा अपनी डायरी में उम्मीदों का टूटना । बेचारी माँ ! उसे माँ पर गुस्सा नहीं आया । उसका क्या दोष? उसे तो लगा थ यहाँ अपने जैसे लोग होंगे । आज वह माँ को चिठ्ठी भी लिखेगा । कल जब सब्जी खरीदने जायेगा तो डाल देगा ।
डायरी से संतुष्ट होने के बाद चिठ्ठी में सारा हाल लिखा । फिर लगा कि पढ़कर माँ घबरा जाएगी इसलिए उसे फाड़कर एक छोटी-सी चिठ्ठी लिखी-मैं ठीक ह, पर मनप नहीं लगता,बस । कागज पर गम लिख लेने के बाद वह काफी हल्का महसूस करने लगा । अब उसे नींद आ रही थी । दिन-प्रतिदिन हरेराम काम के प्रति समर्पित होता गया । अब उसके तौर-तरीके खाना पीने बनाने को ढंग देखकर यह कहना मुश्किल था कि वह बाहर से आया लड़का है । पर उसके साथ घरवालों का तिरस्कार पूर्ण व्यवहार देखकर आसानी से पहचाना जा सकता था कि वह इस घर का सदस्य नहीं है । सभी आने-जाने वाले हरेराम की फुर्ती और लगन देखकर कहते काश! ऐसा सुघड़ लड़का हमें मिलता । जवाब में हमेशा अंकल उसके आलसी और कामचोर होने का रोना शुरू कर देते । कहीं काम में लगा हरेराम यह सब देख-सुनकर अत्यंत क्षुब्ध हो उठता । एकमात्र डायरी के अलावा कोई ऐसा नहीं था जिसके साथ वह अपना गम बाँटता । जब भी चाचा से बात करना चाहता, कोई बात ही करने नहीं देता । जब कभी चाचा का फोन आता, आसपास कोई न कोई जरूर होता । कभी वह चाचा के पास जाना चाहता तो ये लोग जाने ही नहीं देते । एक बार चाचा मिलने भी आये पर अंकल एक मिनट के लिए भी वहाँ से नहीं हटे । उससे ही चाय बनवाकर चाचा को पिलवाया । उसके सामने ही झूठी बातें कहने लगे, वर्धन जी, हरेराम एकदम आलसी है । दिन भर टी.वी. देखना चाहता है । धीरे-धीरे सुस्त की तरह काम करता है आदि आदि । सुनकर उसका मन चीत्कार कर उठा-झूठ,झूठ । सब झूठ है । पर जब वर्धन चाचा ने भी उसे ही डाँटना और समझाना शुरू किया तो उसका कलेजा टूक-टूक हो गया । लाख रोकने पर भी आँखों से आँसू निकल ही पड़े । तब अंकल कहने लगे देखिए, सबसे खराब आदत यही है । गलती करता है और कुछ समझाइए तो रोकर दिखा देता है । और अधिक देर तक यहाँ बैठना उसके वश के बाहर की बात थी । वह उठा और किचन में चला आया ।
दशहरा शुरू हो गया है । आत्मीयता की प्यास इन दिनों और बढ़ गई है । साथ ही अपने घर और अपने देश की याद भी खूब आ रही है । हरेराम क्या करे? इस घर में भी नवरात्रि मनायी जा रही है । पर अपने घर वाली बात यहाँ कहाँ? वह सारे काम करता है पूजा स्थल को धोना-पोंछना भी उसी के जिम्में हैं । उसकी बड़ी इच्छा है वह भी माँ की पूजा करे । कम से कम दो-चार फूल ही चढ़ा ले । पर वह नौकर का नौकर ही ठहरा । न पूजा कर सकता है न प्रसाद बना या छू सकता है । वह गैस पोंछकर प्रसाद की तैयारी कर देता है । उसके बाद अंकल उसे बाहर निकल जाने का आदेश देकर खुद प्रसाद बनाते हैं । दासों को पूजा का क्या अधिकार? आज अष्टमी की महापूजा है । आज कुंवारी कन्याओं की पूजा होती है । पिछले सात दिन के व्यवहार को भूला हरेराम आज खुश है । पूजा न कर सकेगा तो क्या हुआ मन ही मन देवी की वंदना कर लेगा । आज वह सुबह-सुबह ही स्नान कर लेना चाहता है । पर अवकाश कहाँ था? फिर भी पानी भरते समय उसने हाथ-पाँव अच्छे से धो लिए । झाडू-पोंछा लगाकर वह बर्तन धो रहा था । पूजा के लिए जितनी तैयारी का निर्देश उसे मिला था उसने सब कुछ पूरा कर दिया है । धुले बर्तनों को लेकर वह किचन में पहुंचा । गैस पर हलवे की कड़ाही चढ़ी थी । अंकल वहाँ नहीं थे । हरेराम ने देखा गैस तेज है, और हलवा कड़ाही में चिपकने लगा है । उसने बाहर निकलकर देखा अंकल नहीं थे । सोचा य ही छोड़ देने से हलवा जल जायेगा, चलकर गैस बंद कर देना चाहिए । अंदर आकर उसने नॉब को हाथ लगाया ही था कि अंकल आ पहुंचे । जोरदार चाँटा मारकर कहने लगे, पूजा का प्रसाद तुमने क्यों छुआ? हरेराम देवी की दुहाई देकर कहने लगा -‘‘मैंने सिर्फ गैस का नॉब छुआ है ।‘‘ पर अंकल कुछ सुनने को तैयार नहीं थे । कड़ाही उठाकर नीचे फेंक दिया । फिर हरेराम से गैस साफ करवाया । दूसरी कड़ाही लेकर फिर से हलवा बनाया साथ ही हरेराम को गालियाँ देते जाते थे । उस दिन हरेराम को सारे दिन खाना नहीं मिला,रात को भी नहीं । वह रात भर जागता और सुबकता रहा । उसने तय किया यहाँ नहीं रहूंगा कितना जिद किया था उसने दशहरा में घर जाने के लिए । पर अंकल नहीं माने ।
आज हरेराम बहुत खुश है । सुबह-सुबह ही वर्धन चाचा का फोन आया है । अगले बुधवार को हमलोग नेपाल चलेंगे । हे, हे अब दिपावली में अपने घर में रहेंगे, हरेराम चहका । खुशी के कारण चाचा से ज्यादा बात भी नहीं कर सका । आज उसके पैरों में पंख लगे थे और हाथों में जादू । सारे काम वह इतनी जल्दी- जल्दी निपटा रहा था कि अपने ऊपर उसे खुद आश्चर्य हुआ ।
शाम को वह सब्जी लेकर लौटा । रोज की तरह अंकल हिसाब पूछने लगे, ‘‘बैंगन कैसे मिला ?‘‘ ‘‘जी, छह रूपये किलो‘‘ , उसने संक्षिप्त जवाब दिया । पीछे से तरूण ने एक थप्पड़ लगाया-रोज पाँच रूपये किलो मिलती है । आज छह रूपये में? जरूर एक रूपये की टॉफी खरीदी होगी । नहीं,नहीं आज से दाम बढ़ गया है, उसने धीमे से प्रतिवाद किया ।
अच्छा आलू? तरूण ने पूछा । आठ रूपये । फिर झूठ बोलता है, कल तक साढ़े सात रूपये थे, आज आठ रूपये हो गये?-कहते हुए अंकल खड़े हो गये । फिर क्या था अपने पौरूष के प्रदर्शन का इससे अच्छा मौका और हरेराम से उचित पात्र उन्हें क्या मिलता? इसी से लातों-घूसों से उसे रौंद डाला । जब थक गए तो छोड़ दिया ।
हरेराम करूण स्वर में रो पडा तो जोरदार डाँट पड़ी- चुप, रोना बंद और चाय बना ला ।
हरेराम अपने जख्म सहलाता उठा और निर्देश का पालन किया । रात को खाना खाने की उसकी बिल्कुल इच्छा नहीं थी पर और डाँट न पड़े, इसी से चुपचाप दो रोटियाँ खा ली । आज हरेराम के घर लौटने का दिन है । वर्धना चाचा नौ बजे आऍंगे । उससे पहले उसे नाश्ता-खाना बनाकर अपना सामान समेटकर तैयार रहना है । उसने अपने चारों कपड़े अपने थैले में डाल लिये । तरूण की एक पुरानी टी-शर्ट उसे पहनने को मिली थी, उसे भी रख लिया । कल उसे नये कपड़े खरीदकर मिले थे । कंचन ने वही पहनकर जाने को कहा । एक बार तो सोचा, ये इतनी छोटी होकर, रोज ही झल्ला-चिल्लाकर बोलती है । बात-बात में बुढ़िया अम्मा की तरह डाँटती है । इसके कहने पर क्यों पहन ? फिर जाने क्या सोचकर पहन ही लिये । डायरी रखते उसके जख्म हरे हो गए । उसने डायरी थैले से निकाला, उसे कलेजे से लगाया और उसे यहीं छोड देने को निश्चय कर लिया । अपने सोने वाले टाट के नीचे इस तरह रख दिया कि उसका कुछ हिस्सा दिखाई देता रहे । चाचा के आने पर वह अंकल को प्रणाम करके चल दिया । सब हँस-हँसकर कहने लगे आठ दिन में आ जाना ।
घर पहुंचकर उसे लगा वह स्वर्ग में आ गया है जबकि सम्पन्नता उस घर में अधिक थी । माँ से लिपटकर वह आधे घंटे तक रोता रहा । अपनी बहनों के लिए वह वर्धन चाचा द्वारा दी गई मिठाई के अलावा और कुछ न ला सका था । लेकिन उसका रोना देखकर उन लोगों ने कुछ माँगा भी नहीं । रात को सब बैठे तो वह बताने लगा-सब बहुत मारते हैं, काम भी बहुत करना पड़ता है । वह तो तेरी सूरत देखकर ही समझ में आ रहा है, अब वहाँ मत जाना ।
वर्धन चाचा लौट गए । तरूण जब उनके पास हरेराम के बाबत पूछने गया तो दो टूक जवाब मिला- वह नहीं आना चाहता है । वह अपना मुंह लेकर लौट गया । उस दिन हरेराम के जाने के बाद उसकी डायरी देखी था । आज उसकी नजर फिर से डायरी पर पड़ी तो उठा लिया । पन्ना पलटते ही दिखा -डीयर इन्टेलिजेंट ब्वॉय हरेराम! बेस्ट विशेज फॉर योर ब्राइट फ्यूचर । और नीचे डॉ. वीरेन्द्र लिखा था । ह-हरेराम और इन्टेलिजेंट सोचता हुआ वह आगे के पन्ने पलटा तो अपना नाम देखकर चौंक गया । हिन्दी में लिखी उस डायरी को उसने पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही गया । इतना भावुक उसने खुद को कभी नहीं समझा था और न कभी इतना दुःखी ही हो सका था । एक नये हरेराम से उसका परिचय हुआ । उसकी आँखों में आँसू आ गये । अभी आँसू पोंछ ही रहा था कि पापा की आवाज सुनी , हरेराम.......! बाम उसने पूरी की, वो नहीं आएगा कभी नहीं, और उठकर अपने कमरे में चला गया ।