बुधवार, 11 नवंबर 2009

कलम की एक सत्ता होती है- विष्णु नागर

22 अगस्त को जबलपुर आये विष्णु नागर जी से मैंने छोटी सी मुलाकात की थी।

जिनकी लेखनी में व्यंग्य का पैनापन हो और कलम आम आदमी की समस्या, पी़ड़ा से भीगी हो। जो लगभग 37 साल से सक्रिय पत्रकारिता से जु़ड़े हैं और साहित्य से जिनका पुराना रिश्ता है। जी हां main बात कर रहे हैं लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार विष्णु नागर की। विष्णु जी अभी नई दुनिया में एक्जक्यूटीव एडीटर होने के साथ ही साहित्य रचना में भी सक्रिय हैं। पेश है परसाई जी की जयंति पर जबलपुर आये नागर जी से बात चीत ...।

सक्रिय पत्रकारिता से जु़ड़े हैं। निरंतर लेखन करते रहे हैं। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन, चिंतन सबकुछ कैसे संभव हो पाता है?
नागर जी- यह इतना मुश्किल नहीं है। पत्रकारिता में रहते हुए अनुभवों का विस्तार होता है। अगर आप चिंतन - मनन के साथ रोज अखबार प़ढ़ें तो जीवन के हर क्षेत्र की जानकारी होगी। मेरी नजर में समाचार पत्र रोज छपने वाला महाभारत ही है। जीवन के हर पहलू दृष्टिगत होते हैं इसमें। पत्रकार होने से यह लाभ भ्ाी है कि चीजें पूर्ण रूप से सामने आती हैं। दिमाग हमेंशा चिंतनशील रखकर आप काम कर सकते हैं। यह सब विशेष मुश्किल नहीं है।

-विष्णु नागर को विष्णु नागर बनाने में किसका योगदान है?
वैसे तो मैं कोई ब़ड़ी हस्ती नहीं हूं। पर मुझे बनाने में सबसे पहले मेरे कस्बे साहजहांपुर का योगदान है जहां मैं पला- ब़ढ़ा, वहां के संस्कार मिले। मेरे अध्यापक और उन किताबों का योगदान रहा है जिन्हें मैंने अब तक प़ढ़ा। दिल्ली में मेरा कोई परिचित नहीं था इसके बाद भी मैं दिल्ली चला आया, मेरी उस दु:साहस और जो लोग मिले उन सबका योगदान रहा है। मेरी जीवन संगनी का भी योगदान है क्योंकि उसने मुझे घर में ऐसा वातावरण प्रदान किया कि मैं आराम से चिंतन, लेखन कर सकूं।

ऐसा क्यों है कि आज पत्रकारिता में आम आदमी से जु़ड़े मुद्दे नहीं उठाए जा रहे हैं।

नागर जी-- मुझे कहते हुए थो़ड़ा सा दुख है कि यह हिन्दी पत्रकारिता के लिए ज्यादा सच है। अंग्रेजी के पत्र - पत्रिकाएं इस मामले में कहीं अच्छी हैं। पता नहीं क्यों हिन्दी में सबको लगता है चीजें हल्की- फुल्की होनी चाहिए। कहीं यह सुनने को मिलता है। दुखी आदमी दुख की खबरें प़ढ़ना पसंद नहीं करेगा। और दुख उनके जीवन में लाने से क्या मिलेगा। बाजारी होने में कोई मुक्ति नहीं है। पाठक - पाठक होते हैं उपभोक्ता या उत्पाद नहीं। वैसे जल्द ही पत्रकारों को अपनी सीमा समझ में आ जाएगी। लौटेगी पत्रकारिता मुद्दों और आम आदमी की ओर।

राजनीति और प्रशासन के हाल देखते हुए आम आदमी की समस्या कैसे सुलझेगी।
नागर जी-कलम की एक सीधी सत्ता होती है। पत्रकार और साहित्यकार को यह लग सकता है कि उनकी कलम से अब कुछ नहीं हो रहा पर ऐसा नहीं है। हां यह है कि तत्काल स्थितियां नहीं बदलती पर शुरूआत होने लगती है और यह दिखता भी है। पर कोशिश जरूर करनी चाहिए। कई बार ऐसा होता है लोग यह समझ कर कदम रोक लेते है कि इससे क्या होगा या कोई बाधा न आ जाए। इसी भय को कलम चलने वालों को दूर रखना होगा।

इन दिनों हिन्दी ब्लाग की ब़ड़ी चर्चा है। पर ब्लॉग में स्तरीय साहित्य कम ही हैं। क्या आगे इसका भविष्य हिन्दी साहित्य के हिसाब से ठीक है-
नागर जी-ब्लाग बुरा नहीं है। अभी नया- नया है इसलिए दिक्कतें तो आयेंगी ही। यहां कोई विशेष रोक टोक नहीं है इसलिए हर प्रकार की चीजें आ रही हैं। पर इसमें परिपक्वता आयेगी। समय सब सीखाता है तब यह हिन्दी साहित्य के लिए अधिक उपयोगी होगा। इसके माध्यम से विश्व के अधिकाधिक पाठकों तक पहुचा जा सकता है।

क्या आज पत्रकारिता और साहित्य का मूल्याÄास हुआ है।
नागर जी- आज से पच्चास साल पहले भी यही बातें कही जाती थीं। आज भी कहीं जा रही हैं। सच्ची बात यह है कि जो लोग काम करने वाले होते हैं वे हर हाल में काम कर लेते हैं। पहले भी कई अच्छे लेखक , पत्रकार हुए आज भी हैं। सरोकारों के आधार पर लोग उस जमाने में भी जगह पाते थे और अब भी पा रहे हैं। अच्छी चीजें आज भी आ रहीं हैं और आगे भी आएंगी। उनकी मात्रा कम या ज्यादा हो सकती है। पर लोगों को सकारात्मक नजरिया अपनाना होगा।

हिन्दी साहित्य पाठक तक पहुंच सके इसके लिए क्या करना होगा।

नागर जी- इस समस्या के लिए हर मुद्दे पर सुधार जरूरी है। साहित्य ही नहीं पाठक को भी साहित्य की ओर उन्मुख होना होगा। साहित्य को साधारण पाठक के समझ आना होगा। किताबों के मूल्य आज हिन्दी पाठक के जेब से ज्यादा होती हैं। लेखको को नये विचार और नई चेतना से लैस होना होगा। कुल मिलाकर इस समस्या के लिए काफी प्रयास की आवश्यकता है।

क्या कुछ नया लिखने की तैयारी है

नागर जी- हां एक विषय मेरे दिमाग में काफी समय से है। मौका मिलते ही उस पर लेखन शुरू करूंगा। स़ड़क आधारित उस रचना के केंद्र में दिल्ली होगा। आज स़ड़क भी ताकतवर हो गई। आम आदमी के लिए वहां भी जगह नहीं। इन्हीं चिंतन के ताने- बाने से तैयार होगी रचना।

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

छठ पूजा विधि



ये मेरे लेखन की ही कमी है की मैं छठ के बारे में सही जानकारी नहीं दे सकी. छठ के दौरान लोग सूर्य देव की पूजा करतें हैं , इसके लिए पानी में खड़े होकर उगते और डूबते सूर्य को सूप में प्रसाद चढाते हैं और लोग दूध से अर्ध्य देते हैं प्रसाद बाद में लोगो को वितरित कर दी जाती है. मैं अपनी रिपोट भी पेश कर रही hun

कमर तक पानी में डूबे लोग, हाथ में दीप प्रज्ज्वलित, नाना प्रसाद से पूरित सूप और पास ही लोटे से दूध और जल की गिरती धार, आस-पास गूंजते छठी मैया के गीत। आस्था और विश्वास का यह दृश्य शनिवार को छठ पर्व के दौरान देखने को मिला...
डाला छठ के संझा अरग के दौरान ग्वारीघाट, हनुमान ताल में लोगों का हुजुम उमर प़ड़ा और सारा वातावरण छठ मय हुआ।

सूर्य को दिया गया अघ्र्य- छठ व्रती
महिला और पुरुषों ने घाट पर पहुंचकर स्नान किया। िफर गीले वस्त्रों में ही पश्चिम मुख होकर अस्ताचलगामी सूर्य की आराधना की। छठ व्रती ने सूप में पूजा सामग्री लेकर आराधना की और 5.30 बजे डूबते सूर्य को जल और दूध से अघ्र्य दिया। हनुमानताल में सफाई न होने के कारण लोगों ने घर से नहाकर पूजा की।
हो ही गया इंतजाम- तमाम परेशानियों के बीच लोगों ने छठ के पारंपरिक सामग्री की व्यवस्था कर ही ली। फल-फूल की महंगाई से आस्था विचलित नहीं हुई। छठ व्रती के हाथ पक़ड़े सूप में पूजा में शामिल आठ फल, ठेकुआ, नारियल के साथ ही दीप झिलमिला उठे। घाटों पर अघ्र्य के लिए दूध बांटा गया।
गीतों और ढोल से गूंजे घाट- छठ पूजा के दौरान ग्वारीघाट, हनुमानताल और छठ ताल के घाट पर छठी मैया के गीत से वातावरण गुंजायमान हो गया। जिनके घर में नई शादी हुई थी या नये मेहमान के आने की खुशी थी, उन्होंने खूब ढोल बजवाए। बच्चों ने आतिशबाजी भी की।
अपूर्व हुई सजावट- छठ के लिए सजे घाटों का सौन्दर्य देखने योग्य था।
रंगबिरंगी लाइटों की जगमग रोशनी, झिलमिल पानी में डूबता सूरज और आस-पास भक्तिभाव से ख़ड़े लोग, आस्था का यह नजारा देख सबका मन प्रसन्न हो गया। चाराें ओर लोगों ने बिहारी स्टाइल में घाटों में ईख से अपना-अपना क्षेत्र आरक्षित किया था।
निकल गए स्वेटर- छठ के दौरान नदी किनारे की ठण्डी हवा ने सबको स्वेटर पहनने पर मजबूर किया। आज सुबह वाले अघ्र्य के समय तो हर किसी के तन पर स्वेटर/जैकेट और गले में स्कार्फ होगा।
रविवार को दूसरा अरग- रविवार की सुबह सूर्य किरण दिखते ही लोगों ने उदयाचल सूर्य को अघ्र्य देकर नमस्कार किया।

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

छठ हो गया शुरू




बिहार-यूपी के लोग कर रहे छठ पूजा का आयोजन
बिहार के सुप्रसिद्ध पर्व छठ पूजा की शुरुआत हो चुकी है। यूपी-बिहार के काफी लोग जबलपुर में भी निवास करते हैं। छुट्टियों की कमी, रिजर्वेशन न मिलना या यहीं बस जाने वाले लोग पूरे हर्ष-उल्लास से डाला छठ का आयोजन कर रहे हैं। खरना के कारण आज हर तरफ सूर्यदेव की आराधना के पर्व की धूम है-
आदि देव सूर्य की आराधना ऐसे तो संसार में कई जगह होती है, पर यही त्योहार ऐसा है जहां अस्ताचलगामी और उदयांचल सूर्य की पूजा की जाती है।
मनाया गया नहाय-खाय

चार दिन तक चलने वाले इस त्योहार का पहला दिन नहाय-खाय का होता है। गुरुवार को नहाय-खाय की पूजा पारंपरिक उल्लास के साथ संपन्न हुई। इस दिन नहाने के बाद सूर्य को नमस्कार कर भोजन ग्रहण करने का रिवाज है। प्रसाद में चने की दाल और लौकी अनिवार्य होती है।

आज होगी खरने की पूजा-
मुख्य व्रत आज ही प्रारंभ होगा। दिनभर उपवास के बाद शाम को नये चावल की खीर का भोग लगेगा और उसका वितरण किया जायेगा।

पहला अरग कल-
शनिवार को पहला अरग अर्थात सूर्य अघ्र्य का पहला दिन होगा। नदी या तालाब में गीले शरीर से दूध और पानी से डूबते सूरज को अघ्र्य दिया जायेगा।
दूसरा अरग और पारन-
दूसरे अघ्र्य के दिन ही पूजा के बाद छठ व्रती 36 घंटे के उपवास के बाद पारन करते हैं। सुबह उगते सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है।
आयोजन में हो रहीं दिक्कतें-
छठ पूजा में पवित्रता का काफी ध्यान रखना प़ड़ता है। यहां छठ पूजा करने वालों को सभी सामान उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। कच्ची हल्दी, अदरक, सुथनी, अरता जैसी चीजें बिहार में आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं, पर यहां के बाजार में नहीं हैं। यही हाल आम की लक़ड़ी और गन्ने के सूखे रेशे का है। इसी प्रकार यहां जिनके पास अपनी चक्की है वे तो गेहूं पीस चुके हैं, पर बहुत से लोग मिलों में छठ पूजा के लिए अलग आयोजन नहीं हो पाने के कारण फल से पूजा करने को विवश हैं।
घाट हो गए साफ-
पहले अरग के दिन सूर्य को अघ्र्य देने के लिए लोग ग्वारीघाट, छठ ताल, हनुमानताल में मुख्य रूप से जाते हैं। हनुमानताल में छठ पूजा को लेकर साफ-सफाई की गई है। रांझी के छठ ताल में पन्द्रह दिन पहले से ही लोग अपने घाट आरक्षित कर रहे हैं। असुविधा को देखते हुए बहुत से लोगों ने अपनी छत पर ही अघ्र्य की व्यवस्था कर ली है।
ग्रामीण जीवन का पर्व-
छठ पूजा ग्रामीण जीवन का पर्व है। गांव में नये अन्न का महत्व अधिक होता है। छठ पूजा में इस मौसम में आने वाले हर नये अन्न फल-फूल से पूजा की जाती है।

आस्था का चरम-
चार दिनों का यह त्योहार शुद्धता और आस्था का चरम रूप होता है। पूजा का हर सामान नियम और निष्ठा के साथ साफ किया जाता है। यहां तक की चिि़ड़यों और कौओं का जूठा सामान भी नहीं च़ढ़ाते हैं।

पौराणिक संदर्भ-
छठ पूजा का पौराणिक संदर्भ भी है। कहते हैं द्वापर में जब पाण्डव वनवास कर रहे थ्ो और उन्हें विजय का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था, तब द्रौपदी ने धैम्य ऋषि से सहायता मांगी। धैम्य ऋषि ने उन्हें सतयुग की कथा सुनाते हुए छठ व्रत करने की सलाह दी। उसी समय से छठ व्रत मनाया जा रहा है।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

नाटक में लानी होगी और भी क्वालिटी



एनएसडी के प्रोडक्ट और थियेटर तथा िफल्मी दुनिया के जाने- माने कलाकार मनोहर तेली किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उदयपुर के छोटे से गांव में जन्में तेली जी न सिर्फ मंझे हुए रंगकर्मी हैं बल्कि उनकी िफल्म गॉडफादर भी 6 राष्ट्रीय अवार्ड प्राप्त कर चुकी है। जबलपुर रंग विनिमय-09 के के दौरान जबलपुर आये तेली जी से कुछ खास बातचीत- आप चार साल के बाद जबलपुर आये हैं कैसा लगा, क्या- क्या देखा यहां?
सच्ची बात बताऊं तो मैं इतनी बार जबलपुर आया हूं पर कहीं नहीं जाता भेड़ाघाट भी नहीं। जबलपुर मेरे लिए परसाई जी की धरती है। मैंने एक बार उनका घर, वो कमरा जहां बैठ कर वे लिखते थे, सब देख लिया अब और कुछ देखने की तमन्ना नहीं है।
पिछली बार आपने यहां संक्रमण का मंचन किया था और इस बार भी वहीं नाटक कर रहे है ऐसा क्यों?संक्रमण काफी प्रसिद्ध नाटक है। इसबार भी मेरे पास इसके लिए ही प्रस्ताव आया इसलिए इसे ही प्ले कर रहा हूं।
आप सिर्फ अभिनय करते हैं या लेखन आदि दूसरी विधा में भी हाथ आजमाने का इरादा है।
मेरी पहचान मेरे अभिनय से है पर लिखता भी हूं। मैंने कई नाटक लिखे हैं। एक िफल्म भी लिखी है। मेरे नाटक रहनुमा को जवाहर कला केंद्र की ओर से सर्वश्रेष्ठ का खिताब मिला है। मेरी कहानी पर बनी िफल्म श्रम को भी काफी सराहना मिली।
आपको कब लगा कि आप अभिनय के लिए ही बने हैं, क्या बचपन से ही अभिनय करते रहे हैं।
नहीं अभिनय मैंने ग्रेजुएशन से करना शुरू किया। उस समय लगा अभिनय से पेट नहीं भर सकता इसलिए बीएड कर ली और गर्वनमेंट टीचर की नौकरी भी। पर थियेटर करता रहा। साथ में आइएएस की तैयारी भी शुरू की। पर रोज ही लगता था मैं 10- 5 की नौकरी के लिए नहीं बना हूं। मन को संतुष्टी थियेटर करने से ही मिलती थी। िफर एनएसडी ज्वाइन किया और दिल्ली से उदयपुर और उसके मुंबई पहुंच गया।
एनएसडी में सरकार एक छात्र पर कम से कम एक करोड़ रुपये खर्च करती है पर वे पास आउट होने के बाद मुंबई ही क्यों जाते हैं?
बात एनएडी की नहीं है बात है एक आदमी के पास पेट और मन दोनों होता है। मन को थियेटर चाहिए तो पेट को रोटी। इसी रोटी और पैसे के लिए आदमी मुंबई का रूख करता है।
तो क्या अभिनय के लिए रूपहला पर्दा अंतिम जगह है?
नहीं, अंतिम जगह नहीं है। पर रूपहले पर्दे पर काम करके पैसे की पूिर्त होती है। मन तो वहां भी संतुष्ट नहीं होता। आदमी स्वीच के इशारे पर चलता है- बस चुप हो जाओ। एक्शन, स्टार्ट, रीटेक। मैं जब मुंबई नहीं गया था तो एक ईंट भी अपने घर में नहीं लगा पाया पर मुंबई गया तो 15 लाख का मकान बना सका। यही अंतर है दूसरी जगह और मंुबई में।
जब माया नगरी में काम नहीं होता तो कलाकार थियेटर की ओर लौटता है। इस बीच के गैपिंग को वो कैसे भरता है?
यह सही है कि आदमी को कभी थियेटर नहीं छोड़ना चाहिए, यही उसकी जड़ होती है। जड़ों के बिना आदमी कहां टिक सकता है। जो लोग लौटकर आते हैं वे िफर जीरो से शुरू करते हैं। इस दौरान लोग उन्हें भूल चुके होते हैं उनकी जगह कोई और ले लेता है।
क्या नये और प्राइवेट संस्थानों के बीच एनएसडी का महत्व कम हो रहा है
लोग ऐसा कहते हैं पर मैं इसे सच नहीं मानता। मैं जो कुछ भी हूं इसकी बदौलत ही हूं। वर्ना जो मेरी आथिoक परिस्थिति थी मैं 12- 14 लाख रुपये खर्च करके कोर्स नहीं कर पाता। यह है कि वहां कौन से लोग हैं इसका थोड़ा सा प्रभाव पड़ता है।
एनएसडी के माध्यम से सरकार गांव- गांव तक नाटक और थियेटर को पहुंचाना चाहती है, वहां से पास आउट लोग इसके लिए क्या करते हैं, वे क्या कर सकते हैं?
सरकार की स्कीम तो ह ैइसके लिए फंड भी होते हैं उनके पास। लेकिन दिक्कत है कि गांव या छोटे शहरों में वर्कशाप लगाने को कोई तैयार नहीं होता। सरकारी अमले में भी लोग पैसा देने को तैयार हो जाते हैं पर जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते। कोई अकेले गांव में जाकर वर्कशाप लेने को तैयार नहीं होता। अब तो सरकार स्कूल कॉलेजों में ड्रामा टीचर भी रखने वाली है।
आप खुद छोटे जगह से हैं आपको नहीं लगता छोटे गांवों में जाकर वर्कशॉप करना चाहिए वहां की प्रतिभाओं को सामने लाना चाहिए।
करना तो चाहिए पर जो लोग बाहर निकल जाते हैं िफर गांव जा नहीं पाते। हमें बड़े थियेटरों और लाइट सुविधाओं की आदत हो गई है। गांव के लोगों को सबकुछ शुरू से सिख्ााना पडेगा इसलिए टेंशन नहीं लेता हूं।
हिंदी में नाटकों की कमी क्यों हैं अधिकतर पुराने नाटक या कहानी, कविता का मंचन किया जा रहा है?
कहानी की कमी नहीं है। हिन्दी में एप्रोच की जरूरत होती है। कोई क्वालिटी की ओर ध्यान नहीं देता इसलिए अच्छी प्रतिभाएं सामने नहंी आती हैं। यहां तो घोस्ट राइटिंग का चलन है। लिखता कोई है उसे अपने नाम से कोई और प्रमोट करवाता है।
हिन्दी का थियेटर मराठी या बंग्ला की तरह समृद्ध क्यों नहीं।
यहाँ नाटक को लेकर दर्शको में वो उत्साह नहीं है। आज भी नाटक आम आदमी का न होकर इलिट वर्ग की चीज है। हमारे यहां की कहानियां भी आम आदमी की नहीं होती। यहां भी दर्शक को थियेटर तक खींच कर लाना होगा। अभी तो लोगों को नाटक देखने की आदत लगानी होगी नाटक में भी क्वालिटी देनी होगी। उसके बाद ही वह अपने जेब से पैसे निकालेगा।
हिन्दी िथ्ायेटर की इतनी सारी समस्याओं को देखते हुए आपने इसके समाधान के बारे में क्या सोचा है?
मैं समस्याओं पर कई बार चिंतन करता हूं। यह भी सोचता हूं कि आदमी को पर्दे की जगह थियेटर के बारे में ज्यादा सोचना चाहिए। पर कुछ सुझता नहीं है तो चादर ओढ़ कर सो जाता हूं।

शनिवार, 15 अगस्त 2009

वंदे मातरम



















सभी देशवाशियों को स्वत्रंता दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएं।


सोमवार, 3 अगस्त 2009

राखी का स्वयंबर

पिछले डेढ़ महीने से इमेजिन पर राखी सावंत का स्वयंवर प्रसारित हो रहा था। राखी की अबतक की जो इमेज है है वो सिर्फ़ एक आइटम गर्ल का नही क्योकि आइटम गर्ल तो कई हैं पर राखी की महिमा ही अलग है आप ख़ुद ही अंदाजा लगा लीजिये की मैं अपने ब्लॉग पर उसकी बात कर रही हूँ और भी बहुत से लोगों ने ब्लॉग पर राखी को याद किया। राखी की इमेज मुहफट लड़की की है। आम भारतीये लड़कियों जैसा राखी ने कवि ब्यवहार नही किया। बरहाल हम बात कर रहें हैं उसके स्वयंवर की। हिन्दी टेलीविजन के इतिहास में स्वयंवर हुआ भी तो राखी का! खैर इससे इमेजिन की इमेज ही ख़राब हुई। स्वयंवर की परम्परा अब लुप्त हो चुकी है। राखी का योगदान इसे पुनर्जीवित करने के लिए हमेशा याद किया जाएगा। राखी ने एक गलती की । गलती क्या सच कहा जाए तो उसने यहाँ भी अपनी इमाज़ बरकरार रखी स्वयंवर के नियम के हिसाब से राखी को शादी कर लेनी चाहिए थी पर उसने सगाई करके ६ महीने के बाद शादी की घोषणा की है। एक तो स्वयंवर में राखी के टुच्चे ब्यवहार के कारण जनता का दिल टुटा । स्वयंवर में राखी ने कम अश्लीलता नही फैलाई और अब शादी टाल दिया। राखी चुकी राखी है इसलिए यह तो सब को समझ में आगया की ६ महीने बाद सगाई टूटने की ख़बर आएगी। वैसे इमेजिन ने स्वयंवर किसी और लड़की के साथ और भद्रता के साथ स्वयंबर किया होता तो ज्यादा अच्छा होता।

रविवार, 2 अगस्त 2009

दोस्ती




आज फ्रेंडशिप डे था। दोस्ती का दिन। लेकिन क्या हमारे देश में दोस्ती को किसी एक दिन की आवश्यकता है?दोस्ती के लिए किसी एक दिन का चुनाव करना हमारे लिए ठीक नहीं है क्योंकि हमारी संस्कृति में हर दिन दोस्ती का है। होली जैसे त्योहार में दोस्त तो क्या दुश्मन को भी गले लगाने की परंपरा है। भाई बहन के लिए राखी, सच्चाई और बुराई पर अच्छाई की जीत के लिए दशहरा जैसे त्योहार हैं यहां तब क्या डर कि दोस्ती के लिए एक दिन नहीं निकाला तो दोस्ती खत्म हो जायेगी। वैसे इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। आज अच्छे दोस्त और अच्छी दोस्ती बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। हमारे यहां भी यह रेयर की श्रेणी में आ गई है। दोस्ती के लिए त्याग जैसी चीज अब बीते जमाने की चीज हो गई है।कभी - कभी दोस्ती के कारण प्राणों को भी संकट में डालना प़ड़ता है। लोग प्रोफेशनल हो गए हैं तो दोस्ती भी कदम से कदम मिला रही है। लेकिन इससे दोस्ती तो हो जाती है निभ भी जाती है पर मन का कोना खाली- खाली रह जाता है। मित्रता के लिए कोई बंधन नहीं होता बस परस्पर विश्वास की जरूरत होती है। लेकिन एक सच्चाई यह है कि बराबरी वालों की ही मित्रता निभती है। गैर बराबरी में हीनता की भावना आ जाती है और मित्रता को लंबे समय तक चलने नहीं देती। खैर उम्मीद करती हु ब्लोगेर्स की दोस्ती कायम रहेगी। हैप्पी फ्रेंडशिप डे .

रविवार, 26 जुलाई 2009

जबलपुर की नागपंचमी


प्रदेश में संस्कारधानी एक ऐसा शहर है जहां आज भी त्योहारों को लेकर उतनी ही आस्था है जितनी पुराने जमाने में होती थी ऐसा हमारा नहीं दूर- दूर से आये सपेरों का कहना है जो पैसों के लिए नहीं वरन त्योहारों को जीवित रखने की परंपरा को देख यहां आते हैं। यूं तो साल भर भले ही हम सांपों से दूर- दूर रहने की कामना करते हों पर नागपंचमी पर उनकी पूजा करने को आतुर रहते हैं। नागमंचमी के लिए दो दिन पहले ही सपेरों का दल आ पहुंचा। आपको शायद विश्वास न हो पर यह सच है संस्कारीधानी (जबलपुर)का नागों के प्रति लगाव देखकर हर वर्ष नागपंचमी के अवसर पर मथुरा, वृन्दावन, आगरा, इलाहाबाद, छत्त्ाीसगढ़ आदि जगहों से सपेरे आते हैं। इसबार भी पांच सौ के लगभग सपेरे बाहर से आये हैंं। मथुरा से आये रामजीलाल बताते हैं वे लोग 50- 55 साल से यहां आते हैं। यहां आने में खर्च बहुत लगता है और बचत भी नहीं होती पर संस्कारधानी और यहां के निवासियों के स्नेह के कारण वे लोग हर साल चले आते हैं। उनके अनुसार महाकाल की नगरी उज्ज्ौन में भी इतनी श्रद्धा देखने को नहीं मिलती और न ही इतने सपेरे वहां जाते हैं। दूर- दारज से आये इन सपेरों की शहर में विशेष कमाई नहीं होती। ये सपेरे खेतिहर मजदूरी या किसानी करते हैं। लेकिन नागपंचमी के अवसर पर अपने खानदानी पेशे और संस्कृति की रक्षा के लिए ये सांप पकड़ने और लोगों तक पहुंचाने में लग जाते हैं। सपेरे खुद को नाग की संतान मानते हैं और पूजा के अवसर पर अपना कामधाम छोड़कर सांपों को लोगो तक पहुंचाना अपना धर्म मानते हैं। सपेर नागपंचमी के लिए सांप को पकड़ते हैं। उन्हें मंत्र और जड़ी बूटी सूंघा कर अपने साथ रखते हैं जिससे सांप किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। इन सांपों को सपेर अधिकतम ग्यारह दिन तक अपने पास रखते हैं। इस दौरान इन्हें शाकाहार (चावल का माड़ और दूध ) ही खाने को दिया जाता है। नागमंचमी के बाद अधिकर सपेरे सांपों को ग्वारीघाट के आस- पास जंगलों में छोड़ देते हैं और वापस अपने घर चले जाते हैं। नागों के प्रति लोगों की आस्था पहले इतनी गहरी थी कि नागपंचमी आठ दिनों का त्योहार हुआ करता था। इस दौरान कबड्डी और दूसरे खेल प्रतियोगिताओं के अलावा बीन की प्रतियोगिता भी हुआ करती थी। सपेरों के बीन सुनने के लिए महिफलें जमती थीं। पर जब से मप्र. वन्य प्राणी अधिनियम ने सांपों के पूजन के लिए एक दिन की अनुमति दी तब से यह त्योहार सिमट कर एक दिन का हो गया। दूर- दूर से आये सपेरे एक दिन में अपना राह खर्च भी निकालने में असमर्थ हो गए और एक से अधिक दिन सांपों को रखने के कारण वन्य विभाग की कड़भ् नजर उनपर पड़ने लगी तब से सपेरे कम आने लगे हैं। यहां के गुप्तेश्वर मंदिर में इस बार भी पूजन के लिए विशेष आयोजन किया गया है। मंदिर में शिवजी का श्रृंगार नागों से किया जायेगा और मंदिर के बाहर नागदेवता वाले सपेरे भी बुलाये गए हैं। भक्त यहां सामान्य और विशेष पूजन कर सकते हैं दोनों की व्यवस्था है।

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

उधार से






गुनगुनाती गुई आती है फलक से बूंदें
फ़िर कोई बदली तेरी पाजेब से टकराई है.

















बारिश को देख रह नही गया तो कुछ लाइन उधर की ली कुछ तस्वीरें भी .....

छत टपकती है और घर में ' वो ' मेहमान है
पानी - पानी हो रही है आबरू बरसात में ।









मंगलवार, 7 जुलाई 2009

गुडिया नए ज़माने की





















बचपन में गुडिया से हर किसी का सामना होता ही है। विशेषरूप से लड़कियां तो हमेशा उनकी शादी - विवाह और दूसरी चिन्ताओ में व्यस्त रहती है। गुडिया के नए ठाट तो देखिये.




बुधवार, 1 जुलाई 2009

मैंने देखा कर्नाटक







पिछले दिनों मुझे कर्नाटक जाने का अवसर मिला. जैसा सोचा था उससे अलग लगा वह प्रदेश. हिंदी के प्रति उनका ममत्व आह्लादित कर गया. मैंने वहां धरवार और हुबली सिटी देखा. सबसे ज्यादा अच्छा लगा - लोगें का प्यार. हिंदी प्रदेश की कहकर उन्होंने जो प्यार दिया . उसका कोई जवाब नहीं. सब अपने घर बुलाना चाह रहे थे. हर कोई बात करना चाह रहा था. मुख्या रूप से मैंने उनकर झील, रूपकला बेट्टी और एक आश्रम देखा. केले के पत्तें पर खाना खाना मेरे इए रोमांचक अनुभव था .
उनकर झील में विवेकानंद स्मारक बना है. यह कन्या कुमारी के तर्ज पर बना है . हुबली ब्यवसायिक सिटी है. पर प्रकृति से दूर नहीं है. कलि मिटटी वाली हुबली में चावल की खेती होती होती है. इश्वर में लोगों की आस्था अधिक है. कभी मौका मिले तो जरुर जाएँ. नारियल के पेड़ों से सजे घर आपका स्वागत करेंगे. है
मेरे खिचे फोटो तो अभी नहीं डाल पा रही हू . पर इन फोटो से आप हुबली को देख सकते हो. यहाँ उनकर झील, साईबाबा मंदिर , कृषण मंदिर और एक देवी मंदिर की फोटो है.



मंगलवार, 30 जून 2009

आया मानसून












आख़िर इंतजार के बाद आ ही गया मानसून। जबलपुर में भी झमाझम बरसे बादल ।



शनिवार, 27 जून 2009

मिलिए मैसी साहब से







जबलपुर की धरती ने अपने अंक में अनेक प्रतिभाएं समेटी हैं। जबलपुर के ही एक बेटे ने मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में अपना एक मुकाम बनाया और चरित्र अभिनेता के रूप में उसकी पहचान है। मैं बात कर रही हूं मैसी साहब , मुंगेरीलाल यानी रघुवीर यादव की जो अपनी पत्नी रोशनी और बेटे अवीर के साथ दो दिन के लिए जबलपुर आये थे तब मेरी उनसे बातचीत हुई थी। सोचा ब्लागर साथ्ाी क्यों वंचित रहे -
- इतने दिनों के बाद जबलपुर आकर कैसा लगा?
-अपने घर आने पर तो हर किसी को खुशी मिलती है। अपनी जन्मभूमि का प्यार हर किसी को ख्ांीचता है। मैं पहले हमेंशा यहां आया करता था,फिर व्यस्तताओं के कारण गैप होने लगा। अब दो साल से हर बार आ रहा हॅूं। बहुत सुकून मिलता है यहां।
अपने अब तक के सफर के बारे में कुछ बताएं?
मैंने हायर सेकेंड्री तक की प़ढ़ाई जबलपुर से की। मैं अभिनेता बनना चाहता था। मैंने अपनी क्षमताओं को पहचाना। घर से बाहर निकलने में घर और परिवार की ममता आ़ड़े आती है। परिजन अपनी आंखों के सामने ही देखना चाहते हैं। पर मैंने इस प्यार को बेि़ड़यां नहीं बनने दीं। मैं आज भी परिवार से जु़ड़ाव रखता हॅूंं ।बस आगे ब़ढ़ने के लिए घर से दूर गया। मैंने केके नायकर, चंद्रपाल आदि के साथ शुरुआत की। मैंने एनएसडी ज्वाइन किया। इसके बाद भोपाल, दिल्ल्ी और मुंबई मेंतीस साल तक लगातार थियेटर किया।
-किसी को जबलपुर से मुंबई तक का सफर तय करना हो तो रास्ते में क्या दिक्कतें आयेंगी?
मुंबई तक का सफर मुश्किल नहीं है, पर इस सफर को तय करने के लिए अपनी काबलियत की जरूरत होगी। शुरू से ही अपने अंदर एक जुनुन रखना होगा और बिना थके अपने रास्ते पर ब़ढ़ना होगा, तब सफलता भी दूर नहीं रहेगी। इस क्षेत्र में जाने वालों को प़ढ़ाई के साथ साथ एनएसडी या एफडीआई आदि करना चाहिए। थियेटर भी करना चाहिए पर ऐसा नहीं कि एक दो प्ले किया और समझने लगे कि मैंने महारथ हासिल कर ली।
- जबलपुर प्राकृतिक सौन्दर्य से आप्लावित है फिर भी यहां फिल्मों की शूटिंग क्यों नहीं होती?
-यह बात तो सही है कि यहां प्रकृति ने अपना प्यार जी भरकर लुटाया है। राजकपूर ने अपनी एक फिल्म की शूटिंंग यहां की थी। कुछ समय पहले शाहरूख ने भी यहां शूटिंग की है, लेकिन मूल दिक्कत शहर के पिछ़ड़ेपन को लेकर आती है। एक तो यह मुंबई से दूर है, दूसरी फिल्म यूनिट के रुकने के लिए सुविध्ााएं भी नहीं हैं। एक कारण यह भी है कि निर्माताओं को विदेश में शूटिंग करने की आदत लग गई है।
जबलपुर के विकास से कितने संतुष्ट हैं आप?
विकास की तो आप बात मत कीजिए। मैंने इतना `स्लो" कोई शहर नहीं देखा है। जब दूसरे शहरों को विकसित होते देखता हंूॅ तो मुझे लगता है मेरा शहर कब ऐसा होगा? कुर्सी पर बैठे लोग कर क्या रहे हैं इसे आगे क्यों नहीं ब़ढ़ने दे रहे हैं, यह समझ से परे है। मुझे इस मिट्टी से प्यार है, मैं इसी मिट्टी में मरना चाहता हॅूं।
अभिनय में संतुष्टि कहां है?
-चरित्र रोल करने से एक प्रकार की संतुष्टि मिलती है। मैंने `मुंगेरीलाल के हसीन सपने' के पहले भी काफी कुछ किया पर मुंगेरीलाल लोगों को याद रह गया। किसी को हॅंसाना वो भी सभ्य तरीके से थो़ड़ा मुश्किल तो है।
- आजकल की फिल्मों में `एक्सपोजर' रहा है, आप क्या कहेंगे?
फिल्म हमेशा वे ही चलती हैं जो अच्छी हों। एक्सपोज कराने और अधिक पैसा लगा देने से कोई भी िफल्म चलती नहीं। एक्सपोज के लिए जनता फिल्म नहीं देखती। जब तक फिल्म अच्छी नहीं होती है हिट नहीं होती। फिल्म बनाने वाले खुद ही एक्सपोज करना चाहते हैं और दोष्ा ऑडिएंस को देते हैं।
- आजकल क्या कर रहे हैं?
-कुछ दिन पहले आजा नाच ले" फ़िल्म की है। अब एक और फिल्म `आसमां कर रहा हूँ इस फिल्म में मेरा रोल एक राइटर का है जो मुफलिस टाइप का है। वक्त के मार से घायल है वह पर अंत में उसकी पहचान बनती है।
- अगर एक्टर नहीं होते तो क्या होते?
तब तो मैं सिर्फ रघुवीर होता। मेरी कोई पहचान नहीं होती और मैं यहीं कहीं फैक्ट्री में काम कर रहा होता।
शहरवासियों के लिए कोई संदेश?
- लोगों को मेहनत से आगे ब़ढ़ना चाहिए। कुछ नहीं करने से अच्छा है कुछ करें और `रिस्क' लेने में पीछे नहीं रहना चाहिए। यहां की मिट्टी में ब़ड़ी ताकत है। लोग हमेशा मंजिल बनाते हैं लेकिन यह ठीक नहीं। लोगों को हमेशा रास्ते बनाना चाहिए ताकि उस पर दूसरे लोग भी चल सकें। याद रखना चाहिए कि जीवन की सार्थकता कुछ अलग करने म ें है। एक खास बात यह भी कि ईश्वर देता सब कुछ है बस `पिक' करना आना चाहिए।

बुधवार, 24 जून 2009

सुनील सिंह और सुशील बैठियाला बातचीत

जबलपुर में अभिनय का प्रशिक्षण देने आये कलाकार सुनील सिंह और सुशील बैठियाल से मुलाकात। माचिस फेम सुनील सिंह को तो सब जानतें है। सुशील बैथियाला रंगमंच के कलाकार हैं। वालिवुड के भी पहचाने नाम हैं .

आमजन को थियेटर की जरूरत -सुनील सिंह

जबलपुर के छात्रों के साथ कैसा लगा

बहुत अच्छा , मैं भी इनके साथ सीखूंगा।

पिछले वर्ष और इस वर्ष की कार्यशाला में कोई अंतर?

नहीं अंतर तो नहीं है। बस चेहरे बदल गए हैं।

कौन सी बात आपको जबलपुर खींच लाती है

लोगों का प्यार मुझे खींच लाता है। पहले मैंने विवेचना की तरफ से शो किए हैं। इसलिए जब भी बुलाते हैं मैं चला आता हूं।

पहले दिन के क्लास से इन छात्रों को लेकर क्या उम्म्ाीद जगी

है ये मैं नहीं बता सकता। एक दिन में कुछ कहा नहीं जा सकता और दूसरी बात यह है कि कौन , कैसा गेन करता है।

जबलपुर जैसे छोटे शहर में रहकर रंगमंच के लिए काम करने वाले छात्रो का भविष्य कैसा है

यह भी सही तरीके से नहीं बताया जा क्योंकि यह डिपेंड करता है किसे कैसा चांस मिला।

आम जन थियेटर से दूर होते जा रहे हैं , इस विषय में क्या कहना चाहेंगे?

इसके लिए थियेटर को नहीं आम जन को सोचने की जरूरत है क्योंकि थियेटर को लोगों की नहीं बल्कि लोगाें को थियेटर की जरूरत रहती है। आज लोगों के पास वक्त की कमी है।

जबलपुर आने से पहले आप क्या विशेष कर रहे

- अभी तीन फिल्में की है- आमरस, रेड अल्र्ट और तीसरी टिप्स की फिल्म है पर अभी नाम डिसाइड नहीं है। इसके अलावा मैंने एक प्ले भी लिखा है- एक तु और एक मैं।

अभिनय के छात्रों के लिए कुछ विशेष-

सोचना शुरू करें। अभियनय के लिए इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। मैं यहां छात्रों को रोज प्रश्न दूंगा वे इससे जूझेंगे, सोचेंगे फिर हल निकालेंगे।
जीवन के बहुत करीब है थियेटर -सुशील बोठियाल
आप पहले भी जबलपुर आये हैं , यहां के छात्रों के साथ्ा कैसा

लगा काफी अच्छा लगा मुझे। मैं लगातार तीन वर्ष से यहां राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव में आ रहा हूंॅ। लोग भी मेरे जाने पहचाने हैं।

आप छात्रों के उच्चारण पर काम करने वाले है, क्या इसकी बहुत जरूरत है

हांॅ, अभिनय में उच्चारण की आवश्यकता है। इसका ब़ड़ा प्रभाव होता है। इसके अलावा मैं कॉप्सट्रेशन पर भी काम करूंगा।

इस एक महीने की कार्यशाला में छात्र कितना सीख सकेंगे

थियेटर की प्रक्रिया बाकी शिक्षा से भिन्न्ा है। इसमें अपने जीवन के प्रति जागरूक करते हैं। जो जितना अधिक जागरूक होगा वह उतना ही अच्छा अभिनेता भी।

जबलपुर में थियेटर के साथ बहुत सारी समस्याएं हैं। उनके हल के लिए क्या करने की जरूरत है

एक खास बात यह है कि थियेटर की यह समस्या आजादी के समय से ही है और आगे भी रहेगी। इसका कोई हल नहीं निकल सकता। पूरे देश की अव्यसायिक थियेटरों का यही हाल है। थियेटर जिंदगी के करीब होता है। जिस प्रकार जिंदगी का हल कोई भी विचारक नहीं निकाल सके उसी प्रकार थियेटर का भ्ाी संभव नहंी है।



तो फिर थियेटर जिंदा कैसे है?

जितने अव्यसायिक रंगमंच हैं उसने ही थियेटर को जिंदा रखा है। एनएसडी जैसे ब़ड़े संस्थान की बदौलत थियेटर नहीं है। मंदी में फिल्म और टीवी उद्ययोग को काफी फायदा दिया पर थियेटर को नहीं। जैसे मंदी के बाद भी जिंदगी अपनी रफ़्तार से चल रही है वैसे ही थियेटर भी ।



इसके अलावा आप क्या कर रहे हैं

थियेटर प्ले के अलावा तीन फिल्में फ़्लोर पर है- आगे से राइट, मिर्च, लम्हा। इनमें मेरा पॉजिटिव रोल है।

मंगलवार, 23 जून 2009

आसमानी रंग























नीला आसमान रंग भी बदलता है कभी लाल तो कभी पीला। सुबह और शाम के नज़ारे तो देखने लायक ही रहते है। जब बादल आ मिलते है तो ऐसा ही रंग होता है .





गुरुवार, 18 जून 2009

लक्ष्मीकांतशर्मा


एक दिवसीय दौरे पर जबलपुर आये जनसंपर्क मिनिस्टर लक्ष्मीकांत शर्मा से मैंने छोटी सी बातचीत की और जानेउनकी जिंदगी के अनछुए पहलू।
प्रारंभिक पढ़ाई- लिखाई कहां हुई

बचपन से बीए तक की पढ़ाई मैंने सिरौंज में की। उसके बाद एमए और एलएल बी की पढ़ाई के लिए गंजबादसौदा आया और वहीं से पढ़ाई पूरी की।

आम आदमी से विशिष्ठ आदमी बनने के बाद कोई नुकसान भी उठाना पड़ता है?

मैं अपनी बात करूं तो मैं विशिष्ठ आदमी बिल्कुल नहीं। आम आदमी था और आज भी आम ही हूंॅ। मैं लोगों के बीच रहता हूंॅ।

तो क्या घरवालों को समय दे पाते हैं

नहीं। राजनीति में काम के तरीके अलग होते हैं। इसलिए उनको पर्याप्त समय नहीं दे पाता।

राजनीति से आपका लगाव कब से था? क्या बचपन से ही राजनेता बनना चाहते थे।

नहीं। बचपन में तो राजनीति के बारे में नहीं सोचता थ्ाा। संघ की कार्यप्रणाली अच्छी लगती थी। मैं उससे ही जुड़ गया। विश्व हिंदू परिषद से भी जुड़ा था। वहीं काम करते कब राजनीति में आ गया पता भी नहीं चला। 1993 में पाटीo की ओर से टिकट मिली और मैं जीत गया।

पहले की राजनीति और अब की राजनीति में क्या अंतर है

अब राजनीति सुविधाओं वाली हो गई है। पहले की तरह अब गांव- गांव पैदल चलकर लोगों से मिलना नहीं पड़ता। तब क्या कारण है कि आज का युवा राजनीति से दूर हो रहा है आज का युवा पहले अपने करियर के बारे में सोचता है। राजनीति या सेवा आदि की अपेक्षा उसे करियर सिक्योर करना जरूरी लगता है। इसलिए राजनीति को वह किनारे रख देता है।

बचपन का कोई सपना जो पूरा नहीं हो सका हो

बहुत सपने मैं नहीं देखता पर बचपन से चाहता था कि आम आदमी की मुश्किलें कम हो। आम आदमी को सर्वसुविधा संपन्न्ा देखना ही मेरा सपना है। मैं उनके लिए कुछ करने के लिए प्रयासरत हूं।

आपने बेतवा महोत्सव शुरू किया है इसकी उपयोगिता क्या है? इस दौरान नदी के उत्थान के लिए कुछ होता है

सांस्कृतिक महोत्सवों से संस्कृति अक्षुण्ण रहती है। इनका विस्तार होता है। नदी के उत्थन के लिए समिति है यह वर्ष भर काम करती रहती है।