शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012
चिड़िया
इन दिनों पहले वाली बात नहीं रही. कुछ साल पहले तक गर्मियों की सुबह छत चिड़ियों की चहचआहट से गुलजार रहती थी . अब कितनी भी सुबह उठ जाओ चिड़ियाँ दिखती नहीं. सभी लोगों का तो मालूम नहीं पर मेरे जैसे उनकी आवाज के आदि लोगों के लिए यह एक दुखद घटना है, घर जाने पर मेरी सुबह उनकी आवाज से ही हुआ करती थी . चिड़ियाँ जाने कहाँ गम हुई की अब घर जाकर भी निराशा हाथ आती है.
पिछले दिनों चिड़ियाँ की याद में कविता लिखी थी
चिड़िया
उस दिन दिखी थी चिड़िया
थकी- हारी
बेबस क्लांत सी
मुड़- मुड़ कर
जाने किसे देख रही थी
या फिर, नजरें दौड़ा- दौड़ाकर
कुछ खोज रही थी
मैंने सोचा,
ये तो वही चिड़िया है
जो बैठती है मुंडेर पर
चुगती है आंगन में
खेलती है छत पर
और मैं
घर में, बाहर
मुडेर पर, छत पर
जा - जाकर देख आई
दिखी कहीं भी नहीं वह
तब याद आया
वो तो दाना चुगती है
मुठ्ठी में लेकर दाने बिखेरे
आंगन से लेकर छत तक
पर आज तक बिखरे हैं दानें
चिड़िया का नामोनिशां नहीं
‘शायद अब दिखती नहीं चिड़िया
आंगन में, छत पर
या मुड़ेर पर
चिड़िया हो गई हैं किताबों
और तस्वीरों में कैद
पर मैं भी हूं जिद पर
रोज बिखेरती हूं दाना
रोज करती हूं इंतजार
आएगी, मेरी चिडिया रानी
कभी तो आएगी
स्नेह सिंचित दाने
आकर खायेगी।
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5 टिप्पणियां:
शायद अब दिखती नहीं चिड़िया
आंगन में, छत पर
या मुड़ेर पर
अब तो वे दिन पुराने हो गए जब मुंडेरों पर चिड़िया आती थी ...
पर मैं भी हूं जिद पर
रोज बिखेरती हूं दाना
सकारात्मक सोच पर ख़तम हुई आपकी ये रचना बेजोड़ है..
नीरज
सकारात्मक ||
बहुत ही भावपूर्ण सकारात्मक रचना...बधाई
अनुपम भाव संयोजन लिए उत्कृष्ट प्रस्तुति।
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