गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

नाटक में लानी होगी और भी क्वालिटी



एनएसडी के प्रोडक्ट और थियेटर तथा िफल्मी दुनिया के जाने- माने कलाकार मनोहर तेली किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उदयपुर के छोटे से गांव में जन्में तेली जी न सिर्फ मंझे हुए रंगकर्मी हैं बल्कि उनकी िफल्म गॉडफादर भी 6 राष्ट्रीय अवार्ड प्राप्त कर चुकी है। जबलपुर रंग विनिमय-09 के के दौरान जबलपुर आये तेली जी से कुछ खास बातचीत- आप चार साल के बाद जबलपुर आये हैं कैसा लगा, क्या- क्या देखा यहां?
सच्ची बात बताऊं तो मैं इतनी बार जबलपुर आया हूं पर कहीं नहीं जाता भेड़ाघाट भी नहीं। जबलपुर मेरे लिए परसाई जी की धरती है। मैंने एक बार उनका घर, वो कमरा जहां बैठ कर वे लिखते थे, सब देख लिया अब और कुछ देखने की तमन्ना नहीं है।
पिछली बार आपने यहां संक्रमण का मंचन किया था और इस बार भी वहीं नाटक कर रहे है ऐसा क्यों?संक्रमण काफी प्रसिद्ध नाटक है। इसबार भी मेरे पास इसके लिए ही प्रस्ताव आया इसलिए इसे ही प्ले कर रहा हूं।
आप सिर्फ अभिनय करते हैं या लेखन आदि दूसरी विधा में भी हाथ आजमाने का इरादा है।
मेरी पहचान मेरे अभिनय से है पर लिखता भी हूं। मैंने कई नाटक लिखे हैं। एक िफल्म भी लिखी है। मेरे नाटक रहनुमा को जवाहर कला केंद्र की ओर से सर्वश्रेष्ठ का खिताब मिला है। मेरी कहानी पर बनी िफल्म श्रम को भी काफी सराहना मिली।
आपको कब लगा कि आप अभिनय के लिए ही बने हैं, क्या बचपन से ही अभिनय करते रहे हैं।
नहीं अभिनय मैंने ग्रेजुएशन से करना शुरू किया। उस समय लगा अभिनय से पेट नहीं भर सकता इसलिए बीएड कर ली और गर्वनमेंट टीचर की नौकरी भी। पर थियेटर करता रहा। साथ में आइएएस की तैयारी भी शुरू की। पर रोज ही लगता था मैं 10- 5 की नौकरी के लिए नहीं बना हूं। मन को संतुष्टी थियेटर करने से ही मिलती थी। िफर एनएसडी ज्वाइन किया और दिल्ली से उदयपुर और उसके मुंबई पहुंच गया।
एनएसडी में सरकार एक छात्र पर कम से कम एक करोड़ रुपये खर्च करती है पर वे पास आउट होने के बाद मुंबई ही क्यों जाते हैं?
बात एनएडी की नहीं है बात है एक आदमी के पास पेट और मन दोनों होता है। मन को थियेटर चाहिए तो पेट को रोटी। इसी रोटी और पैसे के लिए आदमी मुंबई का रूख करता है।
तो क्या अभिनय के लिए रूपहला पर्दा अंतिम जगह है?
नहीं, अंतिम जगह नहीं है। पर रूपहले पर्दे पर काम करके पैसे की पूिर्त होती है। मन तो वहां भी संतुष्ट नहीं होता। आदमी स्वीच के इशारे पर चलता है- बस चुप हो जाओ। एक्शन, स्टार्ट, रीटेक। मैं जब मुंबई नहीं गया था तो एक ईंट भी अपने घर में नहीं लगा पाया पर मुंबई गया तो 15 लाख का मकान बना सका। यही अंतर है दूसरी जगह और मंुबई में।
जब माया नगरी में काम नहीं होता तो कलाकार थियेटर की ओर लौटता है। इस बीच के गैपिंग को वो कैसे भरता है?
यह सही है कि आदमी को कभी थियेटर नहीं छोड़ना चाहिए, यही उसकी जड़ होती है। जड़ों के बिना आदमी कहां टिक सकता है। जो लोग लौटकर आते हैं वे िफर जीरो से शुरू करते हैं। इस दौरान लोग उन्हें भूल चुके होते हैं उनकी जगह कोई और ले लेता है।
क्या नये और प्राइवेट संस्थानों के बीच एनएसडी का महत्व कम हो रहा है
लोग ऐसा कहते हैं पर मैं इसे सच नहीं मानता। मैं जो कुछ भी हूं इसकी बदौलत ही हूं। वर्ना जो मेरी आथिoक परिस्थिति थी मैं 12- 14 लाख रुपये खर्च करके कोर्स नहीं कर पाता। यह है कि वहां कौन से लोग हैं इसका थोड़ा सा प्रभाव पड़ता है।
एनएसडी के माध्यम से सरकार गांव- गांव तक नाटक और थियेटर को पहुंचाना चाहती है, वहां से पास आउट लोग इसके लिए क्या करते हैं, वे क्या कर सकते हैं?
सरकार की स्कीम तो ह ैइसके लिए फंड भी होते हैं उनके पास। लेकिन दिक्कत है कि गांव या छोटे शहरों में वर्कशाप लगाने को कोई तैयार नहीं होता। सरकारी अमले में भी लोग पैसा देने को तैयार हो जाते हैं पर जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते। कोई अकेले गांव में जाकर वर्कशाप लेने को तैयार नहीं होता। अब तो सरकार स्कूल कॉलेजों में ड्रामा टीचर भी रखने वाली है।
आप खुद छोटे जगह से हैं आपको नहीं लगता छोटे गांवों में जाकर वर्कशॉप करना चाहिए वहां की प्रतिभाओं को सामने लाना चाहिए।
करना तो चाहिए पर जो लोग बाहर निकल जाते हैं िफर गांव जा नहीं पाते। हमें बड़े थियेटरों और लाइट सुविधाओं की आदत हो गई है। गांव के लोगों को सबकुछ शुरू से सिख्ााना पडेगा इसलिए टेंशन नहीं लेता हूं।
हिंदी में नाटकों की कमी क्यों हैं अधिकतर पुराने नाटक या कहानी, कविता का मंचन किया जा रहा है?
कहानी की कमी नहीं है। हिन्दी में एप्रोच की जरूरत होती है। कोई क्वालिटी की ओर ध्यान नहीं देता इसलिए अच्छी प्रतिभाएं सामने नहंी आती हैं। यहां तो घोस्ट राइटिंग का चलन है। लिखता कोई है उसे अपने नाम से कोई और प्रमोट करवाता है।
हिन्दी का थियेटर मराठी या बंग्ला की तरह समृद्ध क्यों नहीं।
यहाँ नाटक को लेकर दर्शको में वो उत्साह नहीं है। आज भी नाटक आम आदमी का न होकर इलिट वर्ग की चीज है। हमारे यहां की कहानियां भी आम आदमी की नहीं होती। यहां भी दर्शक को थियेटर तक खींच कर लाना होगा। अभी तो लोगों को नाटक देखने की आदत लगानी होगी नाटक में भी क्वालिटी देनी होगी। उसके बाद ही वह अपने जेब से पैसे निकालेगा।
हिन्दी िथ्ायेटर की इतनी सारी समस्याओं को देखते हुए आपने इसके समाधान के बारे में क्या सोचा है?
मैं समस्याओं पर कई बार चिंतन करता हूं। यह भी सोचता हूं कि आदमी को पर्दे की जगह थियेटर के बारे में ज्यादा सोचना चाहिए। पर कुछ सुझता नहीं है तो चादर ओढ़ कर सो जाता हूं।

8 टिप्‍पणियां:

Vinashaay sharma ने कहा…

बहुत साल पहले अलकाजी जी के बारे में,तो जानता था,अब तेली जी के बारे में जान कर अच्छा ्लगा ।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

achcha laga........... jaankar.........

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

achcha laga........... jaankar.........

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर लगा इसे पढ कर.
धन्यवाद

शरद कोकास ने कहा…

थियेटर के बारे मे जानने की इच्छा रखने वाले हर व्यक्ति के मन मे यही प्रश्न आते है। इन प्रश्नो का उत्तर तेली जी ने यहाम दे दिया है । आपको धन्यवाद । इस बेहतरीन साक्षात्कार के लिये वैसे जबलपुर का रंगकर्म सम्रद्ध है मेरे मित्र हिमांशु जी और विवेचना के कलाकार सभी इसका निर्वाह कर रहे है । मैने तरंग नाट्यग्रह भी देखा है और वहाँ नाट्क भी अच्छे होते हैं ।

राजीव तनेजा ने कहा…

रंगमंच के बारे में जानकर अच्छा लगा

बवाल ने कहा…

वाह वाह शैली, तेली जी का साक्षातकार बहुत ही सुन्दर ढंग से लिया आपने। रंगमंच उभर कर छा गया। ऐसे ही लिखते रहिए। अच्छा लगता है आपका लिखना।

pran sharma ने कहा…

TELEE JEE KE SAATH AAPKAA
SAAKSHATKAR ACHCHHA LAGAA
HAI.KHOOB JAANKAARIYAN MILEE
HAIN .BADHAAEE.