इतने कम शब्दों में मनोभाव की इतनी सुंदर अभिव्यक्ति...! लेकिन विस्तार.... खुले आकाश का पूरा विस्तार आप ही का है... इस काव्य का विस्तार बनाए रक्खें . . . बहोत ही सुंदर रचना है, बधाई स्वीकारें....!! ---मुफलिस---
धूप के बिम्ब पर मेरी भी है एक रचना http://vivekkikavitaye.blogspot.com उठो जोपडी पढ़ो विकास के पहाडे तुम्हारी पूँजी है तुम्हारी सँख्या तुम्हारी शक्ति है तुम्हारा श्रम तुम्हें रिझाने चली आ रही हैं दुनियाँ देखो छप्पर के सूराख से सूरज झाँक रहा है लेकर बेतहाशा सुरमई धूप तुम्हारे हिस्से की और घुसा आ रहा है ताजी हवा का झोंका तुम्हारा पसीना पोंछने ! प्रस्तुतकर्ता vivek ranjan
ठण्ड से ठिठुरती गर्माहट की चाह लिए आ पहुँची हूँ - खुले में ठिठुरन कायम है गर्माहट का अहसास नही सब तो घूम रहें हैं खिले- खिले से - पल्लवित हो बस मैं रह गई बनके कूप जाने कौन ले उड़ा मेरे हिस्से की धूप
आपके ब्लॉग पर आकर सुखद अनुभूति हुयी.इस गणतंत्र दिवस पर यह हार्दिक शुभकामना और विश्वास कि आपकी सृजनधर्मिता यूँ ही नित आगे बढती रहे. इस पर्व पर "शब्द शिखर'' पर मेरे आलेख "लोक चेतना में स्वाधीनता की लय'' का अवलोकन करें और यदि पसंद आये तो दो शब्दों की अपेक्षा.....!!!
17 टिप्पणियां:
सुंदर चित्र ओर बहुत ही सुंदर कविता, दुसरा चित्र तो लगत है हमारे यहां का ही हो.
धन्यवाद
पहले मैने सोचा, चित्र ही आप की कविता के पहरुए बन कर हमें वह संवेदना दे जायेंगे. बाद में जाना नीचे है हमारे हिस्से की कविता की धूप.
धन्यवाद.
बेहतर भावाभिव्यक्ति के लिये साधुवाद....
इतने कम शब्दों में मनोभाव की इतनी सुंदर अभिव्यक्ति...!
लेकिन विस्तार.... खुले आकाश का पूरा विस्तार आप ही का है...
इस काव्य का विस्तार बनाए रक्खें . . .
बहोत ही सुंदर रचना है, बधाई स्वीकारें....!!
---मुफलिस---
बेहद संक्षिप्त परन्तु अत्यन्त सुंदर , भाव एवं शब्द दोनों ही बहुत सुंदर हैं .
जाने कौन ले उड़ा
मेरे हिस्से की धूप...............
कभी-कभी तो लगता है कि
खुदा से भी हो जाती है चूक
भाव एवं शब्द,अत्यन्त सुंदर.
धूप के बिम्ब पर मेरी भी है एक रचना
http://vivekkikavitaye.blogspot.com
उठो जोपडी
पढ़ो विकास के पहाडे
तुम्हारी पूँजी है तुम्हारी सँख्या
तुम्हारी शक्ति है तुम्हारा श्रम
तुम्हें रिझाने चली आ रही हैं दुनियाँ
देखो छप्पर के सूराख से
सूरज झाँक रहा है
लेकर बेतहाशा सुरमई धूप
तुम्हारे हिस्से की
और घुसा आ रहा है
ताजी हवा का झोंका
तुम्हारा
पसीना पोंछने !
प्रस्तुतकर्ता vivek ranjan
एक अलग नजरिये के साथ आपने अपनी बात को रखा। बहुत ही सुंदर चित्र महसूस किया जा सकता है
गंभीर एवं सुंदर अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद.
Aapki kavita me kai arth chupe hue hain.Unme se ek ling bhedh ki taraph sanket karta hai.
कम शब्दों की सुंदर कविता !
कविता के भाव मन को विचलित करते हैं !
मैंने जब कविता को ध्यान से पढ़ा तो इसमें कई बिम्ब उभरते दिखायी दिए !
कविता को कई "एंगल" से पढ़ा जा सकता है !
कविता के कई भाव हैं .....मजा आ गया
अनिल कान्त
मेरा अपना जहान
ठण्ड से ठिठुरती
गर्माहट की चाह लिए
आ पहुँची हूँ -
खुले में
ठिठुरन कायम है
गर्माहट का अहसास नही
सब तो घूम रहें हैं
खिले- खिले से -
पल्लवित हो
बस मैं रह गई
बनके कूप
जाने कौन ले उड़ा
मेरे हिस्से की धूप
बेहतरीन कविता ढेरों बधाई
बहुत ही शानदार रचना है!!!!!!!!
आपके ब्लॉग पर आकर सुखद अनुभूति हुयी.इस गणतंत्र दिवस पर यह हार्दिक शुभकामना और विश्वास कि आपकी सृजनधर्मिता यूँ ही नित आगे बढती रहे. इस पर्व पर "शब्द शिखर'' पर मेरे आलेख "लोक चेतना में स्वाधीनता की लय'' का अवलोकन करें और यदि पसंद आये तो दो शब्दों की अपेक्षा.....!!!
गणतंत्र दिवस की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं
http://mohanbaghola.blogspot.com/2009/01/blog-post.html
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