शनिवार, 25 अप्रैल 2009

प्यास

















पक्षियों को भी लगती है प्यास । इनके लिए अपने घर में पानी रखें ।








रविवार, 5 अप्रैल 2009

कुछ अलग





अभी मैंने योगेन्द्र सिंह राठौर की कविता पढ़ी । बिल्कुल अलग उपमान हैं इसमे और बिम्ब भी नया , इसलिए आपसब के लिए प्रस्तुत है-

इश्क,



एक सिगरेट के पैकेट की तरह,

चेतावनी ऊपर लिखी हुई,
फिर भी प्रोफेसर से लेकर,
वैज्ञानिक तक पीते हैं,
और प्रेमिका,
उंंगलियों में फंंसी जलती सिगरेट,
जिसे अन्त तक जलना है,
आप कश भले ही न ले,
ले लेंगें तो उसका जेलना,
अस्तित्व का मिटना,
अपना वजूद खोना,
सब सार्थक हो जाएगा,
डॉक्टरों के मना करने के बावजूद भी,
सिगरेट मैं नहीं छोड पा रहा हंूं,
मेरा दोस्त, बीबी, डॉक्टरेट,
सिगरेट ,
मैं स्वंय,
सब कुछ जल रहा है,
तो/किसीको/कुछ तो,
सुकूल/चैन सा मिल रहा है ।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

राम तुलसी और हनुमान.











रामनवमी का सम्बन्ध राम से है और उससे भी ज्यादा हनुमान से है। राम की बात याद करते ही कई बातें दिमाग में आने लगती है। जनमानस के राम रामबाण अर्थात अचूक निशाने का प्रतीक है तो राम राज्य अपूर्व ऐश्वर्य और सुख शांति का। राम के समय में जाते ही यह याद कर सुखद आश्चर्य होता है कि राम ने सीता के खोज में सुदूर दक्षिण में जाकर न केवल सीता मुक्त किया बल्कि उस प्रदेश के लोगो को सभ्यता से परिचित कराया। राम के साथ विवाद भी काफी हैं। लेकिन विवादों को हटा कर देखें तो राम के साथ कई खास बात जुड़ी है। अच्छे और बुरे दोनों काम राम का नाम लेकर किया जाता है । सुख और दुख दोनों के समय राम ही याद आते हैं। राम- राम गंदी वस्तु का प्रतीक है तो हे राम आश्चर्य,विस्मय या दुख का तथा सीता राम भक्ति के लिए प्रयुक्त होते हैं। राम ने शील और संस्कार का आदर्श तो प्रस्तुत किया ही था ।





राम इसलिए भी ऐतिहासिक पुरूष हैं क्योंकी उन्होंने ही पहली बार पुरे भारत को जोड़ने की कोशिश की ।उनसे पहले किसी ने इस प्रकार की कोशिश नही की थी । राम के सन्दर्भ में दूसरी बात यह हैं की राम ही ऐसे देवता हैं जिनके भक्त का महत्व उनसे ज्यादा हैं। राम नवमी में पुरे देश में राम से ज्यादा पूजा हनुमान की होती हैं। इस दिन हनुमान मन्दिर में ध्वजा गाड़ने के साथ ही चोला भी बदला जाता हैं मानो जन्म दिन भी राम् का नही हनुमान का ही हो । गांव में रामनवमी के दिन हनुमान मंदिर में चढ़ने वाले रोट का तो सभी बच्चे बेसब्री से इंतजार करते हैं।
राम की चर्चा करते समय तुलसी दास को भुलाया नही जा सकता हैं। राम को जन- जन के पहुचने का काम उन्होंने ही किया। उनका योगदान वाल्मीकि से भी बड़ा हैं। वाल्मीकि के समय में राम जन की चेतना में अपनी पैठ नही बना सके थे । पर तुलसी न केवल लोक मानस में विसरे हुए राम को स्थान दिलाया बल्कि राम के साथ जुड़े विवाद को सुलझान की भी कोशिश की। इसलिए ही तुलसीदास ने वाल्मीकि रामायण के कई प्रसंग नहीं लिये। सीता का धरती में समाना भी नहीं।

सोमवार, 30 मार्च 2009

कसम की किस्म

हमारे देश में कसमो का बड़ा महत्व है । लोग माँ - बाप और भगवन की कसमे खाकर अपनी सच्चाई का प्रमाण देते हैं। माना जाता है की कसम खाकर बोलने वाला सच ही कहता है। वीरेन डंगवाल की एक कविता पढ़ी , कुछ खास किस्म की कसमो का जिक्र है, आप भी पढिये
rani मुखर्जी और ब्लैक की कसम
सानिया मिर्जा के हुनर की कसम
चुनाव आयोग के धैर्य की कसम
सिब्ते रजी के काले चश्मे की कसम
मैं हूँ बहुत आश्वस्त थोड़ा सा पस्त
पुरे रंगीन मुगल आजम की कसम
बूटा सिंह की बुतों की कसम
मिलावटी तेल के खेल की कसम
आसाराम बापू के हरिओम की कसम
वो नमक कंडोम की कसम
मैं हूँ मास्टर ब्लास्टर पंकज चतुर्वेदी का फैन

सोमवार, 9 मार्च 2009

महिला दिवस कुछ सवाल





कल महिला दिवस था । इक्कीसवी सदी की नारी का जिक्र आते ही हमारे मन में एक सुपर पावर वुमेन की तस्वीर उभरती है। जो हर क्षेत्र में सफलता का परचम लहरा रही है। यह सही है स्त्री ने घर की चहारदीवारी से बाहर निकल कर अनंत आकाश तक का सफर तय कर लिया है। किरण बेदी, कल्पना चावला, सानिया मिर्जा से प्रतिभा पाटिल तक के उदाहरण समाज को देखने को मिले, पर क्या ये काफी हैं? महिलाएं समाज का आधा हिस्सा हैं और उनके लिए केवल एक दिन ? बाकी के दिन किसके हैं। महिला दिवस पर एक दिन महिलाओं का है, बोलकर कई सारे आयोजन कर, शासन- प्रशासन और सामाजिक कार्यकर्ता की कुर्सी पर बैठे लोग अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। उनकी नजर में महिलाओं के पास भी पुरुषों के समान अधिकार तथा दायित्व हैं। आज महिलाओं के लिए समाज में मान-सम्मान के साथ ही कानून और सुरक्षा के आयाम बढ़े हैं।
आज की नारी के लिए बस इतना ही-
कर पदयात अब मिथ्या के मस्तक पर
सत्यांवेश के पथ पर निकलो नारी
तुम बहुत दिनों तक बनी रही दीप कुटिया का
अब बनो क्रांति के ज्वाला की चिंगारी।
कैसे हुई महिला दिवस की शुरूआत
आज से एक सौ एक साल पहले 1908 में न्यूयॉर्क में महिलाओं ने अपने हक के लिए आवाज उठाई थी। वोट डालने के अधिकार, समान वेतन और काम के घण्टे कम करने के लिए 15000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क की सड़कों पर आन्दोलन किया था। इस लड़ाई में बहुत सी महिलाए· आहत हुई थीं। बाद में पुरुष वर्चस्व को विवश होकर महिलाओं को उनका अधिकार देना पड़ा।तीन साल के बाद 1911 में आठ मार्च का यह दिन जर्मनी में महिला दिवस के रूप में मनाया गया। बाद में इस दिन को महिला दिवस के रूप में मान्यता मिल गई। पूरे संसार में 8 मार्च का दिन महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में 1952 से इसे मनाया जा रहा है।

पहल जरुरी
पिछले दशकों में स्त्रियों का उत्पीड़न रोकने और उन्हें उनके हक दिलाने के बारे में बड़ी संख्या में कानून पारित हुए हैं। अगर इतने कानूनों का सचमुच पालन होता तो भारत में स्त्रियों के साथ भेदभाव और अत्याचार अब का खत्म हो जाना था। लेकिन पुरूष प्रधान मानसिकता के चलते यह संभव नहीं हो सका है। हमे कोशिश करनी चाहिए की इस दिशा में कुछ हो।

सोमवार, 2 मार्च 2009

नये पुराने का संगम जयपुर




कई दिनों से मैं ब्लॉग की दुनिया से गायब रही। दरअसल इन दिनों मैं ेजयपुर गई थी। भारतीय साहित्य परिषद राजस्थान की तरफ से मुझे सरला अग्रवाल कहानी प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार मिला। इस दौरान मैंने जयपुर का भ्रमण भी किया। जयपुर में जो मुझे सबसे खास बात नजर आई वो थी वहांॅ के लोगों का अपनापन। उससे मैं अभिभूत हो गई। हर तरफ वहां मुझे ऐसे लोग मिले जो सेवा को तत्पर हों। अपने राज्य में आये अतिथि का सब ध्यान रखना चाह रहे थे। भले ही वो साहित्य से जुड़े हों या न हों। जब भी मुझे किसी मदद कीजरूरत आयी परेशान होने की आवश्यकता ही नहीं रही। किसी नई जगह का यह अपनापन देख सबसे पहले यह सवाल सामने आया ऐसा हर जगह क्यों नहीं? हालांकि कुछ जगह दिक्कत भी हुई दुकानों में तो टुरिस्टों को लुटने की पूरी तैयारी रहती है।पर लोगों का अपनापन देखकर यह कुछ विशेष नहीं खला। इसके अलावा यह भी खास है कि जयपुर बदल रहा है। बहुत तेजी से। मॉल की संस्कृति में राजस्थान वाली खासियत गुमसुम ही दिखी। पुराने पिंकसिटी में भी पुरानेपन के उपर नये पन को लपेटा जा रहा है। नये पराने जयपुर में काफी अंतर दिखा। जैसे किसी शहर का 20 साल पुराना और आधुनिक रूप एक साथ देख्ा रहे हाें। गली सामने गली और दरवाजे के सामने दरवाजे का सिद्धांत पसंद आया।यह भी एक प्रकार का भूलभुलैया ही है।







मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

वैलेंटाइन डे बनाम मदनोत्सव



















वैलेंटाइन डे के आगमन की चर्चा सुनते ही सब तरफ़ का माहौल ही बदल गया है. किसी के चहरे संस्कृति के नाम पर विकृत हो रहे है कोई इसे अच्छा कह रहा है कि आधुनिक काल के हिसाब से ये ठीक है. कोई इसे अभिव्यक्ति कि स्वतंत्र के साथ जोड़ रहा है. ब्लॉग पर भी इन दिनों बसंत कि नही वरण वैलेंटाइन डे कि ही बहार है. और मैं हूँ कि मुझे हर साल कि तरह इस बार भी मदनोत्सव कि याद आ रही है. यही समय है उसे भी मानाने का. उस त्यौहार को कैसे मानते थे वो मैं बताती हूँ. बसंत का मौसम सुहावना होता है आम में मंजर लगना शुरू हो जाता है . कई प्रकार के फूल खिले होते हैं. मदनोत्सव में युवक - युवतियो का परिचय होता था. खुले माहौल में उनकी मुलाकात होती थी. अपनी उम्र के लोगो का अलग - अलग ग्रुप होता था. जिसमे सब घुलते मिलते थे. लड़कियां और लड़के खासतौर से इस दिन के लिए तैयारी करते थे. फूलों से ख़ुद को अपने उपवन को भी सजाते थे. मदनोत्सव मानाने कि परम्परा तो काफी पहले ही समाप्त हो चुकी है . अब अगर वैलेंटाइन डे के नाम पर उसे फ़िर से मनाया जा रहा है तो ग़लत क्या है . बस होना यह चाहिए कि उसे मानाने में भारतीयता कि झलक साफ - साफ दिखे . ऐसा नही कि हम आयातित त्यौहार मन रहे हैं . तो देखते है इस बार कितने ब्लोगर साथी हमारी संस्कृति के हिसाब से वैलेंटाइन डे मानते हैं . हाँ देशी फूलों से ख़ुद को सजाइयेगा .