शनिवार, 27 नवंबर 2010

डर और प्रेम








प्रेम बस नाम ही है
किसी सुखद एहसास का
उसका एहसास ही
भूला देता है सारे सुख
बचता है फिर
सिर्फ और सिर्फ डर
डर, प्रेम के उजागर हो जाने का,
डर ,साथ साथ देखे जाने का,
डर, साथ छूट जाने का,
डर, प्रेम में छले जाने का,
डर, प्रेम का ‘शादी के द्वार आने/ न आने का
डर,प्रेम का समय के घोड़े की पीठ से फिसल जाने का
डर, प्रेम की जगह किसी और आकशZण में बंधे रह जाने का
डर- डर- डर और डर

6 टिप्‍पणियां:

बवाल ने कहा…

बस इसीलिए तो गब्बर सिहं कह गया है कि जो डर गया वो मर गया। हा हा।
बहुत ख़ूबसूरत अहसास समेटे हुए है आपकी यह कविता।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

शैली खत्री जी
बहुत ख़ूबसूरत है आपका ब्लॉग…
और रचनाएं भी

प्रेम के नाम पर इतने डर की क्या आवश्यकता है ?
कहते हैं न प्यार किया तो डरना क्या …? … लेकिन सच पूछा जाए तो डर ज़रूरी भी है ।
बहरहाल अच्छी कविता है ।
और भी श्रेष्ठ सृजन के लिए शुभकामनाएं हैं ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार

mitthu ने कहा…

Dar ke aage Jeet hai

बेनामी ने कहा…

मनमोहक ब्लॉग और विचारपरक रचना - लोग कहते हैं कि "प्यार किया तो डरना क्या" और डर के आगे जीत है लेकिन डर स्वाभाविक है - नव वर्ष २०११ कि मंगल कामना

Creative Manch ने कहा…

उसका एहसास ही
भूला देता है सारे सुख
बचता है फिर
सिर्फ और सिर्फ डर

ये डर थोडा जरूरी भी है ....
बहुत सुन्दर रचना
बधाई
आभार

बाल भवन जबलपुर ने कहा…

ati sunadr bete
sneh