जबलपुर में अभिनय का प्रशिक्षण देने आये कलाकार सुनील सिंह और सुशील बैठियाल से मुलाकात। माचिस फेम सुनील सिंह को तो सब जानतें है। सुशील बैथियाला रंगमंच के कलाकार हैं। वालिवुड के भी पहचाने नाम हैं .
आमजन को थियेटर की जरूरत -सुनील सिंह
जबलपुर के छात्रों के साथ कैसा लगा
बहुत अच्छा , मैं भी इनके साथ सीखूंगा।
पिछले वर्ष और इस वर्ष की कार्यशाला में कोई अंतर?
नहीं अंतर तो नहीं है। बस चेहरे बदल गए हैं।
कौन सी बात आपको जबलपुर खींच लाती है
लोगों का प्यार मुझे खींच लाता है। पहले मैंने विवेचना की तरफ से शो किए हैं। इसलिए जब भी बुलाते हैं मैं चला आता हूं।
पहले दिन के क्लास से इन छात्रों को लेकर क्या उम्म्ाीद जगी
है ये मैं नहीं बता सकता। एक दिन में कुछ कहा नहीं जा सकता और दूसरी बात यह है कि कौन , कैसा गेन करता है।
जबलपुर जैसे छोटे शहर में रहकर रंगमंच के लिए काम करने वाले छात्रो का भविष्य कैसा है
यह भी सही तरीके से नहीं बताया जा क्योंकि यह डिपेंड करता है किसे कैसा चांस मिला।
आम जन थियेटर से दूर होते जा रहे हैं , इस विषय में क्या कहना चाहेंगे?
इसके लिए थियेटर को नहीं आम जन को सोचने की जरूरत है क्योंकि थियेटर को लोगों की नहीं बल्कि लोगाें को थियेटर की जरूरत रहती है। आज लोगों के पास वक्त की कमी है।
जबलपुर आने से पहले आप क्या विशेष कर रहे
- अभी तीन फिल्में की है- आमरस, रेड अल्र्ट और तीसरी टिप्स की फिल्म है पर अभी नाम डिसाइड नहीं है। इसके अलावा मैंने एक प्ले भी लिखा है- एक तु और एक मैं।
अभिनय के छात्रों के लिए कुछ विशेष-
सोचना शुरू करें। अभियनय के लिए इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। मैं यहां छात्रों को रोज प्रश्न दूंगा वे इससे जूझेंगे, सोचेंगे फिर हल निकालेंगे।
जीवन के बहुत करीब है थियेटर -सुशील बोठियाल
आप पहले भी जबलपुर आये हैं , यहां के छात्रों के साथ्ा कैसा
लगा काफी अच्छा लगा मुझे। मैं लगातार तीन वर्ष से यहां राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव में आ रहा हूंॅ। लोग भी मेरे जाने पहचाने हैं।
आप छात्रों के उच्चारण पर काम करने वाले है, क्या इसकी बहुत जरूरत है
हांॅ, अभिनय में उच्चारण की आवश्यकता है। इसका ब़ड़ा प्रभाव होता है। इसके अलावा मैं कॉप्सट्रेशन पर भी काम करूंगा।
इस एक महीने की कार्यशाला में छात्र कितना सीख सकेंगे
थियेटर की प्रक्रिया बाकी शिक्षा से भिन्न्ा है। इसमें अपने जीवन के प्रति जागरूक करते हैं। जो जितना अधिक जागरूक होगा वह उतना ही अच्छा अभिनेता भी।
जबलपुर में थियेटर के साथ बहुत सारी समस्याएं हैं। उनके हल के लिए क्या करने की जरूरत है
एक खास बात यह है कि थियेटर की यह समस्या आजादी के समय से ही है और आगे भी रहेगी। इसका कोई हल नहीं निकल सकता। पूरे देश की अव्यसायिक थियेटरों का यही हाल है। थियेटर जिंदगी के करीब होता है। जिस प्रकार जिंदगी का हल कोई भी विचारक नहीं निकाल सके उसी प्रकार थियेटर का भ्ाी संभव नहंी है।
तो फिर थियेटर जिंदा कैसे है?
जितने अव्यसायिक रंगमंच हैं उसने ही थियेटर को जिंदा रखा है। एनएसडी जैसे ब़ड़े संस्थान की बदौलत थियेटर नहीं है। मंदी में फिल्म और टीवी उद्ययोग को काफी फायदा दिया पर थियेटर को नहीं। जैसे मंदी के बाद भी जिंदगी अपनी रफ़्तार से चल रही है वैसे ही थियेटर भी ।
इसके अलावा आप क्या कर रहे हैं
थियेटर प्ले के अलावा तीन फिल्में फ़्लोर पर है- आगे से राइट, मिर्च, लम्हा। इनमें मेरा पॉजिटिव रोल है।
4 टिप्पणियां:
अच्छा लगा बातचीत पढ़ना!
दोनों वरिष्ष्ठ रंग कर्मियों की बातें असर दार रहीं...काश उनका एक आध चित्र भी देखने को मिल जाता ...सुनील सिंह तो शायद जयपुर के हैं...
नीरज
asar daar baachcheet लगी........... achee post
बहुत अच्छा लगा वार्ता को जानना!
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